Friday, July 4, 2014

उस 50 फीसदी आबादी के नाम

सिर्फ 12 साल की थी वो। हरी-हरी हिरनी जैसी आंखों वाली। मुहल्ले में गणपति पर हर साल डांस किया करती थी। मैं उसका नाम नहीं जानती हूं, ये भी नहीं जानती कि वो कौन थी, पर उसके बारे में सोनाली से सुना था कई बार। चार दिन पहले सोनाली ने बताया था कि रसोई में चाय बनाते हुए वो बुरी तरह जल गई। 75 परसेंट बर्न है, अस्पताल में भर्ती है।
यकीन मानिए सबसे पहला खयाल मुझे यही आया कि ये एक्सीडेंट नहीं सुसाइड की कोशिश है, और इसी से जुड़ा हुआ दूसरा खयाल ये कि इसका ज़िम्मेदार ज़रूर कोई हैवान है, जो आदमी के भेष में रह रहा है। और जब ये पता चला कि गैस का पाइप लीक होने की वजह से हादसा हुआ तो मुझे बहुत अफ़सोस हुआ। अफ़सोस उस बच्ची के लिए भी, और अपनी सोच के लिए भी,...लेकिन सबसे ज़्यादा अफ़सोस उस 50 फीसदी (अब शायद 50 फीसदी से ज़्यादा) आबादी के लिए हुआ जिसने अपोज़िट सेक्स वाली 50 फीसदी (50 फीसदी से कम ही) आबादी का भरोसा खो दिया है।
सोनाली, मेरी मेड भी है, मेरी दोस्त भी, और उसकी दुनिया में झांकने वाली मेरी खिड़की भी। वो अपने घर-परिवार, अपने आस-पड़ोस और अपने दोस्तों के किस्से मुझे इस तरह सुनाती रहती है कि मेरी भी अब उन लोगों से पहचान हो चली है। सोनाली कह रही थी कि दीदी बहुत सुंदर थी वो, और मैं सोच रही थी कि यकीनन सुंदर रही होगी, इसलिए नहीं कि उसकी आंखें हरी थीं, इसलिए नहीं क्योंकि उसका रंग गोरा था, बल्कि इसलिए....क्योंकि वो ज़िंदगी थी, उसके अंदर एक दिल धड़कता था, उसकी आंखों में एक सपना रहता था, क्योंकि उसे छुप्पन छुपाई खेलना अच्छा लगता था, क्योंकि उसे बारिश में भीगना पसंद था, क्योंकि वो अपने शरीर में हो रहे बदलावों के बोझ से दबी नहीं थी, क्योंकि एक दिन वो भी अपनी मां की तरह अपने परिवार का भार उठाना चाहती थी, क्योंकि वो भी अपनी क्लास में फस्ट आना चाहती थी,...क्योंकि वो ख़ुद से और इस दुनिया से प्यार करती थी। पिछले चार दिनों में सोनाली बताती रही कि वो बच्ची तकलीफ़ में है, अस्पताल में आखिरी सांसें ले रही है, और शायद इस यातना से जल्दी मुक्ति की प्रार्थना कर रही है। और आज उसने जो बताया, वो सुनने के बाद मैं सन्नाटे में हूं।
12 साल की वो बच्ची यातना सिर्फ अस्पताल में नहीं सह रही है, अस्पताल पहुंचने से पहले से, बहुत पहले से वो यातना झेल रही थी। उसका दिल धड़कता नहीं था बल्कि कांपता था तुम्हारे आने की आहट से, उसकी आंखों में कोई सपना नहीं था, वहां सिर्फ तुम्हारा डर पसरा रहता था, उसके शरीर में हो रहे बदलाव कुदरती प्रक्रिया का हिस्सा नहीं थे, वो तुम्हारे अत्याचार के गवाह थे, छुप्पन-छुपाई का खेल नहीं वो तुमसे अपना स्वाभिमान बचाने की लड़ाई लड़ रही थी, वो नफ़रत करती थी ख़ुद से, तुम से और इस दुनिया से भी,...इतनी नफ़रत कि इस दुनिया में रहना भी उसे गंवारा नहीं था। 12 साल की वो बच्ची जली नहीं थी, उसने खुद को जलाया था,...उसने वाकई ख़ुदकुशी की कोशिश की थी,...और उसकी ख़ुदकुशी के लिए वाकई वही हैवान ज़िम्मेदार था। हां, हैवान ही था वो। पांचवी क्लास में पढ़ने वाली एक बच्ची, जिसे सही तरीके से हिज्जे तक मालूम नहीं थे, उसे सुसाइड नोट लिखने के लिए मज़बूर करे, उसे इंसान कैसे कहूं मैं? अगर वो इंसान है, तो आज मैं ख़ुद को इंसान कहे जाने से इनकार करती हूं। मैं खुद को इन हैवानों के साथ एक ही स्पीसीज़ में रखे जाने का विरोध करती हूं।
इस बच्ची ने जो किया, वो अचानक हो गया कोई हादसा, गुस्से में उठाया गया कोई कदम नहीं था ये,....महीनों डर के साए में जीने, अपमान में जलने, तिल-तिल कर मरने के बाद उसने खुद को जला डालने का फ़ैसला किया होगा। 12 साल की ही सही, लेकिन उसके अंदर औरत का दिल था,...वरना वो यही आग वो उन लिज़लिज़े हाथों को लगाती जिसने उसे छुआ था, ये अंगारे वो उसके शरीर में भरती जिसने उसकी आत्मा को झुलसा दिया था। ये सिर्फ शरीर पर लगी आग नहीं थी, ये बददुआ थी उस मासूम की जो आज नहीं तो कल हम सबको लगेगी ज़रूर।
वो बच्ची ज़िंदा रहेगी या नहीं, वो अब कभी कुछ कह पाएगी या नहीं पता नहीं। पर उसकी तरफ़ से मैं उस 50 फीसदी आबादी से कुछ कहना चाहती हूं, जिसने धीरे-धीरे इस 50 फीसदी आबादी को इस मुकाम पर ला खड़ा कर दिया है। मैं जानती हूं कि तुम सब उस हैवान का प्रतिनिधित्व नहीं करते हो, मैं जानती हूं कि तुम्हारा और हमारा डीएनए करीब-करीब एक सा है, मैं जानती हूं कि तुम सब हमें सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट नहीं समझते हो (या शायद समझते हो), लेकिन इवॉल्यूशन की प्रक्रिया में कुछ तो ग़लत हो गया है। मैं कई बार ख़ुद से पूछती हूं कि कहीं X और Y क्रोमोज़ोम्स के अलावा भी हम दोनों के डीएनए में कुछ और बदलाव तो नहीं आ गया है? वरना एक ही स्पीसीज़ के दो जेंडर्स के बीच इतनी बड़ी खाई कैसे बन जाती? खैर, कोई इमोशनल बात नहीं (वही इमोशन्स जिसे बाइ द वे तुम कई बार नाटक भी कह देते हो), नैतिकता की कोई दुहाई नहीं, दया की कोई भीख़ नहीं, सिर्फ कुछ सवाल हैं जो मैं अक्सर अपने आप से पूछती हूं, आज तुम खुद से पूछ कर देखो।
किसी लड़की को देखते ही उसपर जानवर की तरह टूट पड़ना (जानवर तो इतने वहशी कभी नहीं होते), दांतों से, हाथों से, नीयत से, आंखों से उसे नोंचना खसोटना, और ये ना कर सके तो अपनी कल्पना में उसके साथ बलात्कार करना। बस? यही करने के लिए मिली है तुम्हें ये ज़िंदगी? सोचो अगर इंसान होकर भी हमें यही करना होता, तो प्रकृति ने हमें ये दिमाग नहीं दिया होता, विकास की ये संभावनाएं नहीं दी होती,....हम भी जानवरों की तरह सिर्फ जी रहे होते और सेक्स कर रहे होते। तब तुम्हारे लिए ये किसी पर जंग जीत लेने जैसी बात नहीं होती, और हमारे लिए तिल-तिल कर मरने का सवाल भी नहीं। अगर ऐसा नहीं है तो इसका मतलब यही है कि अपोज़िट सेक्स वाला जीव सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट नहीं होता।
तुम हमारे शरीर को अपनी जागीर समझते हो, तुम हमारी मर्ज़ी के बिना हमारे साथ कुछ भी कर सकते हो, तुम्हारी बात ना मानने पर तुम हमें टॉर्चर कर सकते हो। ऐसा कब होता है? तभी ना, जब हम सामने वाले को कमज़ोर समझते हैं, जब हमें लगता है कि हम उसपर हावी हो सकते हैं। बेअक्ल जानवर भी ऐसा नहीं करते। कभी सोचा है क्यों? क्योंकि एक ही स्पीसीज़ के दो जेंडर कभी एक दूसरे से कमज़ोर या ताकतवर नहीं हो सकते। ये प्रकृति का नियम है कि जो कमज़ोर है, वो ज़िंदा नहीं रह सकता,...और अगर एक जेंडर ख़त्म हो जाए (शारीरिक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक रूप से) तो दूसरे जेंडर को ख़त्म होना ही पड़ेगा। शक्ति का संतुलन प्रकृति का सबसे बड़ा नियम है। और जब-जब सृष्ठि में शक्ति का संतुलन बिगड़ता है, तब-तब सिर्फ विनाश होता है। तो क्या अब भी तुम्हें लगता है कि हम कमज़ोर हैं?
हां कुछ कमज़ोरियां हैं हम में, हम इमोशनल हैं, कि हमारा दिल कोमल है, कि हमारी प्रायोरिटी में हमारा नंबर सबके बाद आता है। शायद इसीलिए हम सहती रहती हैं, कि तुम्हें तकलीफ़ ना हो, समाज में तुम्हारी इज़्जत बनी रहे। लेकिन जो दुनिया हमें सम्मान से जीने का हक़ नहीं दे सकती वो दुनिया बनी रहे या ख़त्म हो जाए, इससे जल्दी ही हमें फर्क पड़ना बंद हो जाएगा। ऐसी हैवानियत से तुम (तुम्हारे जेंडर के ये लोग) हमारी कोमलता को ख़त्म कर रहे हो, तुम हमारे अंदर से प्यार के स्रोत को सुखा रहे हो, और तुम्हें अहसास भी नहीं कि इससे सिर्फ हम नहीं तुम भी सफ़र कर रहे हो।  मैं नहीं जानती कि ये अवसाद है, सदमा है, सब कुछ ख़त्म हो जाने का अहसास है, या गुस्से की इंतिहां, लेकिन तुम मेरा भरोसा खोते जा रहे हो।
तुम्हारे जेंडर के कई लोग मेरे आसपास रहते हैं, जिन्हें मैं पापा, भाई, पति, दोस्त जैसे नामों से पुकारती हूं। मैं उन्हें जानती हूं, इसलिए उनसे प्यार करती हूं, उनपर भरोसा करती हूं। मुझे दुख़ है कि तुम्हारे आसपास रहने वाली मेरे जेंडर के लोग, उनपर भरोसा नहीं करते होंगे, ठीक वैसे ही जैसे मैं तुम पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि मैं तुम्हें सिर्फ एक ख़तरे के तौर पर जानती हूं।
मैं तुमसे हम पर दया करने के लिए नहीं कह रही हूं, हमारी तकलीफ़ समझने के लिए नहीं कह नही हूं, ना ही हमारी जगह खुद को रखकर देखने के लिए कह रह हूं। तुम सिर्फ अपने लिए सोचो, और सोचो इतने लोगों के अविश्वास को लेकर जी पाओगे तुम? इतने लोगों के गुस्से और नफ़रत को झेल पाओगे तुम? और अगर नहीं तो अपनी 50 फीसदी आबादी के दिमाग में फैल रहे इस वायरस से तुम्हें भी लड़ना होगा। इस समाज में, इस सोच में, इस रवैये में आधी हिस्सेदारी तुम्हारी भी है, इसलिए इसे बदलने की आधी ज़िम्मेदारी तुम्हारी भी है। पर सवाल ये है कि क्या तुम इस ज़िम्मेदारी को निभाओगे? या यूं ही खड़े देखते रहोगे?


Saturday, April 25, 2009

और क्या कहूं?


कई दिन, या यूं कहूं कई महीने हो गए हैं कुछ भी लिखे हुए। ऑफिस में दो लाइन के वीओवीटी या चार लाइन के पैकेज लिख लेने मात्र को लिखना कैसे कहूं समझ में नहीं आता। लेकिन घर पर चाहते हुए भी कुछ लिख नहीं पा रही थी। ये शायद गुस्से की अधिकता है या सोच की, विचारों को शब्द ही नहीं मिल पा रहे थे। लेकिन थैक्स टू विनोद जी। जिनके ई मेल ने मुझे फिर से लिखने की प्रेरणा दी। पर्सनली तो विनोद जी को नहीं हीं जानती हूं लेकिन उनके ब्लॉग और मुझे भेजे गए उनके ई-मेल को पढ़कर इतना तो पता चल ही गया है कि वो बेहद पॉज़िटिव सोच रखते हैं। या शायद मैं कुछ ज़्यादा ही निगेटिव हो चली हूं। विनोद जी कहते हैं कि फिज़ा कोई दूध पीती, मासूम बच्ची नहीं है कि चांद मुहम्मद की बातों में आ गई। उनका मानना है कि जो हुआ उसके लिए फिज़ा और चांद मुहम्मद दोनों ही ज़िम्मेदार हैं। विनोद जी को मीडिया के रोल पर भी आपत्ति है। साथ ही इस बात से नाराज़गी भी कि इन बातों को मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है। बिल्कुल सही बात है। मैं पूरी तरह उनकी बात से सहमत हूं कि बात करने से ही बात बनेगी। इसलिए मुझे लगा कि उनकी आपत्तियों का जवाब देना बनता है। सबसे पहली बात फिज़ा की मासूमियत की बात...मैंने पहले भी कहा है कि मैं फिज़ा की समर्थक नहीं हूं। पहले तो मैं ये ही नहीं मानती हूं कि फिज़ा मासूम है, या उसे बहलाया-फुसलाया गया है। मेरा तो बस इतना कहना है कि ज़िम्मेदारी दोनों की है। और चांद मुहम्मद उससे पल्ला नहीं झाड़ सकता। दूसरी बात ये कि सवाल फिज़ा का है ही नहीं। सवाल महिलाओं का है, उनके आत्मसम्मान का है। और किसी को भी हक़ नहीं है कि वो इस आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए
चांद और फिज़ा के बीच जो कुछ भी हुआ, वो उनका पर्सनल मामला है। ये विनोद जी भी मानते हैं कि जो हुआ उसके लिए चांद औऱ फिज़ा दोनों ज़िम्मेदार हैं लेकिन अगर गलती सिर्फ अनुराधा की भी होती तो भी क्या इसको आधार बनाकर महिलाओं के चरित्र पर अंगुली उठाना। ये कहना कि महिलाएं आगे बढ़ने के लिए पुरुषों का इस्तेमाल करती हैं। क्या ये जायज़ है? ये कहना कि महिलाओं को सब कुछ पका-पकाया मिल जाता है। क्या ये उनके साथ अन्याय नहीं है? घर और बाहर की दोहरी ज़िम्मेदारियों को निभाना और ज़रा सी चूक होने पर दोनों जगह ताने सुनना। क्या यही महिलाओं की नियति है। जब औरत घर से बाहर निकलकर ऑफिस जाती है तो पिता, पति या भाई को लगता है कि वो उन्हें इग्नोर कर रही है। बच्चे को टाइम नहीं दे रही है। सास-ससुर की सेवा नहीं कर रही है। और जब यही पिता, पति और भाई ऑफिस जाते हैं तो अपनी कुलीग को मैटरनिटी लीव मिलना वो अपने साथ अन्याय मानते हैं। मुझे सिर्फ इस दोहरे मापदंडों से आपत्ति है। औरत का अस्तित्व, उसकी आइडेंटी...क्या इसकी कोई जगह नहीं है पुरुषों की डिक्शनरी में। पिछले दिनों मीडिया में एक मामला खूब उछला था। गंगोलीहाट (जो कि मेरा घर है) की एसडीएम दीप्ती सिंह ने अपने पति के खिलाफ़ बदसलूकी और मार-पीट का मामला दर्ज कराया है। पिछले महीने जब मैं घर गई तो वहां हर ओर इसी बात की चर्चा थी। गंगोलीहाट एक छोटा सा कस्बा है, यहां बड़ी-बड़ी घटनाएं नहीं होतीं, इसलिए लोग छोटी-छोटी चीज़ों को ही बड़ा बना लेते हैं। फिर ये तो वहां की एसडीएम की बात थी। लेकिन मुझे हैरानी इस बात पर हुई की किसी की भी सहानुभूति दीप्ती के साथ नहीं थी। लोगों का कहना था कि ग़लती दीप्ती सिंह की है। जो कुछ लोगों की बातों से पता चला उसका सार ये है कि दीप्ती का पति खुद एक आईपीएस ऑफिसर है। परिवार की मर्ज़ी के खिलाफ़ दोनों ने लव मैरिज की और जैसा कि नौकरीपेशा लोगों के साथ अक्सर हो जाता है, दोनों की पोस्टिंग अलग-अलग जगह हो गई। अब पति महोदय चाहते थे कि दीप्ती अपनी जॉब छोड़कर उनके साथ रहे। और जब दीप्ती ने उसकी बात नहीं मानी तो उसकी पिटाई कर दी गई। और ज़्यादा क्या कहूं बस इतना ही पूछना चाहती हूं क्या पति को खुश करने के लिए दीप्ती को अपनी ज़िंदगी भर की कमाई, अपनी ज़िंदगी भर की मेहनत, अपना नाम, अपनी आइडेंटिटी को कुर्बान कर देना चाहिए था। मैं खुश हूं कि दीप्ती सिंह ने ऐसा नहीं किया। हालांकि उसने ऐसा किया होता तो शायद उसकी इतनी आलोचना नहीं होती। लेकिन आगे बढ़ना है तो ये सब तो सहना ही होगा।
जहां तक बात मीडिया की है। मैं मानती हूं, मीडिया करीब-करीब हर मामले में बहुत ख़राब भूमिका निभा रहा है। मीडिया से जुड़ी होने की वजह से मैं खुद को भी इसके लिए ज़िम्मेदार मानती हूं। लेकिन मीडिया अब एक कारोबार बन गया है। वैसे देखा जाए तो ये खुशकिस्मती ही है कि मीडिया बिज़नेस है। और कारोबारी की नज़र सिर्फ प्रॉफिट पर होती है। जिस दिन दूसरों की ज़िंदगी में ताक-झाक करने से, सनसनी फैलाने से, तिल का ताड़ बनाने से और चटपटी, मसालेदार ख़बरों से प्रॉफिट मिलना बंद हो जाएगा, मीडिया ख़ुद बख़ुद सुधर जाएगा। हालांकि दिल से मैं यही मानती हूं कि मेरा तर्क खोखला है। मीडिया जिस स्तर पर आ गया है उसे उठाना बहुत मुश्किल है। लेकिन अपने-अपने हिस्से की छोटी-छोटी कोशिश तो हम कर ही सकते है।

Saturday, February 7, 2009

एक फिज़ा के बहाने


सोचा था इस मुद्दे पर कुछ नहीं लिखूंगी...क्योंकि अगर कुछ लिखा तो लोगों को बुरा लगेगा...लेकिन फिर सोचा मैं दुनिया की परवाह क्यों करूं? वैसे तो ये एक बहस भर थी...और बहस का विषय औरत हो तो क्या कहने। किसने क्या कहा ये नहीं लिखूंगी क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बस इस बहस का नतीजा क्या निकला वो भर बता देती हूं। नतीजा निकला कि १- लड़कियां घरों को तोड़ती हैं. २-आज की पढ़ी लिखी लड़कियां पैसे वाले लोगों और खास कर राजनीति से जुड़े लोगों को फंसाती हैं फिर उनसे पैसे ऐंठती हैं. ३- कामकाजी लड़कियों को ना तो ढंग से काम आता है और ना ही घर संभालना. ४- कामकाजी लड़कियां सिर्फ अपनी मुस्कान और अदाओं का खाती हैं. ५- लड़कियों का क्या है जब तक बिना कुछ किए पैसा मिल रहा है तब तक नौकरी करो नहीं तो शादी कर लो. ६-लड़कियां अपने काम को सीरियसली नहीं लेती...और अगर डांट पड़ जाए तो दो आंसू टपकाए और बात खत्म। वैसे लिस्ट और भी लंबी हो सकती है लेकिन घुमाफिरा कर थीं यही बातें। ज़ाहिर है बहस में हिस्सा लेने वाले सभी पुरुष थे। बीच-बीच में मुड़कर मेरी ओर भी देख लिया जाता था...शायद इस उम्मीद में कि मैं कुछ बोलूं। लेकिन मैं कुछ नहीं बोली...और कुछ बोलने का फायदा भी क्या था?
बात शुरु तो अनुराधा बाली, माफ कीजिए...फिज़ा मोहम्मद से हुई थी...लेकिन खत्म...खैर छोड़िये।
फिज़ा तो वैसे भी आजकल हॉट टॉपिक है...फिज़ा के बहाने लड़कियों को नैतिकता, संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले राजनीति में भी हैं और मीडिया में भी। कोई लड़की धर्म बदलकर किसी शादी-शुदा आदमी के साथ शादी कर ले...लड़का भी कौन? एक पूर्व मंत्री...यहीं तक होता तो चलो मान भी लेते, दोनों खुले आम अपने प्यार का इज़हार करते घूमते हैं...मीडिया को इंटरव्यू देते फिरते हैं। अब ये बात लोगों को कैसे हज़म होगी। पहली बार जब चांद मोहम्मद और फिज़ा ने मिलकर प्रेस कांफ्रेंस की थी तो सभी न्यूज़ चैनल वालों की बाछें खिल गई कि चलो आज का मसाला मिल गया। मेरे एक सहयोगी ने तब भी कहा था यार ये तो बड़ी चालू चीज़ है। और अब जब कि फिज़ा चांद मोहम्मद की पोल पट्टी खोलने पर तुली हुई है तो मेरे वही सहयोगी बड़े गर्व से कहते हैं देखो मैने पहले ही कहा था ना बड़ी चालू चीज़ है....। हां चालू है फिज़ा क्योंकि उसने एक शादी शुदा आदमी के लिए अपना सबकुछ छोड़ दिया। हां वो चालू है क्योंकि उसने समाज से डरे बिना इस सच को स्वीकार किया। वो चालू है क्योंकि अपने धोखेबाज़ पति के पाप पर छुपकर आंसू बहाने के बजाए उसने दुनिया के सामने अपना रोना रोया। वो चालू है कि क्योंकि एक कोने में पड़े रहकर खुद को कोसने के बजाए उसने चांद मोहम्मद से ज़िम्मेदारी लेने को कहा। मैं फिज़ा की समर्थक नहीं हूं। मुझे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि चांद मोहम्मद उसके पास वापस लौटता है या नहीं। मेरी दिलचस्पी इसमें भी नहीं है कि कौन चांद मोहम्मद की असली पत्नी है। लेकिन मैं एक औरत हूं और मुझे इस बात से फर्क पड़ता है जब फिज़ा के बहाने लोग औरतों पर फिकरे कसते हैं...मुझे फर्क पड़ता है जब नैतिकता के ठेकेदार औरतों को हद में रहने की सलाह देने लगते हैं। मुझे फर्क पड़ता है जब ऑफिस में घटिया मज़ाक के दौर चलते हैं और मेरे बगल में बैठे दो पुरुष सहयोगी एक दूसरे के कानों में कुछ फुसफुसाते हैं और एक घिनौनी सी हंसी हंसते हैं। जी हां मुझे फर्क पड़ता है जब खुद को पढ़े लिखे कहने वाला एक पत्रकार मैंगलोर में हुई लड़कियों की पिटाई को सही ठहराता है। तर्क ये कि जब कोई अपनी सीमा पार करता है तो किसी ना किसी को तो आगे आना ही होगा। तो अब आप बताएंगे हमें कि हमारी सीमा क्या है? आप समझाएंगे हमें कि हमारा चरित्र कैसा होना चाहिए? क्यों भला? आप कौन होते हैं हमारी सीमा तय करने वाले? हमारे चरित्र का ग्राफ बनाने वाले? हमने तो ये हक़ किसी को नहीं दिया। ये सिर्फ और सिर्फ हमारा अधिकार है। और अच्छा यही होगा कि कोई, मतलब कोई भी इस अधिकार में हस्तक्षेप करने की कोशिश ना करे। क्योंकि लड़कियों के ज़रा हाथ-पैर खोलते ही तुम्हारा दम फूलने लगा है। तो सोचो अगर पूरी परवाज़ ले ली तो क्या होगा?

Sunday, January 25, 2009

क्या ये आतंकवाद नहीं?


कुछ ही महीने पहले अपने एक दोस्त से मिली... बहुत दिनों बाद मुलाक़ात हुई थी...और सच कहूं तो उससे मिलकर बहुत अच्छा भी लगा। सिर्फ २ साल में ही उसने काफी तरक्की कर ली थी। मुझसे चार गुना सैलरी थी...और खर्च भी वैसा ही। .उसका नाम नहीं लिखूंगी...इसलिए नहीं क्योंकि मैं उसकी पहचान गुप्त रखना चाहती हूं...बस इसलिए कि क्योंकि आजकल मुझे अपने आसपास हर शख्स में उसका अक्श नज़र आने लगा है। तो जैसा कि आजकल होता है। हफ्ते में पांच दिन वो जमकर काम करता था और दो दिन जमकर मस्ती। लेकिन अंदर कहीं कुछ चुभ भी रहा था। मुझे लगा कि ज़िंदगी में मैं कहीं पीछे छूट गई हूं। एक बार तो ये भी सोचा कि अगर आईटी सेक्टर ज़्वाइन किया होता तो तरक्की के ज़्यादा चांसेज़ थे। लेकिन आज हालात बिल्कुल बदले हुए हैं। उसमें वो ज़िदादिली नज़र ही नहीं आती...बिल्कुल डरा हुआ, सहमा हुआ सा लगता है। जिन मदों में खर्च करने से पहले वो सोचता भी नहीं था आज वही उसे भारी लग रहे हैं। हर हफ़्ते जमने वाली महफिलें सूनी हो गई हैं। मोबाइल का बिल आधा भी नहीं रह गया है और यहां तक कि सिगरेट की लत भी लगता है छूट जाएगी। हर थोड़ी देर के बाद उसके मुंह से निकल ही जाता है कि यार इंडस्ट्री की हालत बहुत ख़राब है। यार आजकल ऑफिस में बहुत टेंशन चल रही है। न जाने कब नौकरी से हाथ धोना पड़ जाए। अपने हमेशा हंसते रहने वाले दोस्त के मुंह से ऐसी बातें सुनकर इस दुनिया पर, इस सिस्टम पर बेहद गुस्सा आता है? क्या दुनिया सिर्फ एक बाज़ार भर है? क्या इंसान सिर्फ एक मशीन भऱ है? जब तक तुम्हारा काम है तब तक इस मशीन को घिसते रहो...और जब काम निकल जाए तो उसे कबाड़ की तरह फेंक दो। आर्थिक मंदी, आर्थिक मंदी सुन-सुन कर कान पक गए हैं। ये आर्थिक मंदी कोई आसमान से तो टपकी नहीं है। दुनिया में पैसा पहले भी उतना ही था जितना कि अब है। कंपनियों के ग़लत फ़ैसले, ग़लत प्रबंधन का खामियाज़ा बेचारे वो लोग क्यों उठाएं जो अपनी दिन रात की मेहनत उस कंपनी को आगे बढ़ाने में लगा रहे हैं। तर्क कहता है कंपनी का बचना ज़्यादा ज़रूरी है तो क्या कंपनी को बचाने के लिए कर्मचारी की बलि लेना ज़रूरी है। अभी तो एक सत्यम का सच सामने आया है। कौन जाने अभी ऐसे कितने सच अंधेरे में दफ़न हैं? तो क्या हर बार जब ऐसा कोई सच सामने आएगा तो मेरा कोई दोस्त अपनी मुस्कान खो देगा? ऐसे तो एक दिन हम सब मुस्कुराना भूल जाएंगे। तब ये कंपनियां अपनी तरक्की का जश्न क्या लाशों के साथ मनाएंगी?

क्यों गर्व करूं?


क्या सर्फ इसलिए क्योंकि मैं इस देश में पैदा हुई हूं? जबकि मैं ये जानती हूं कि यहां पैदा होना या ना होना मेरी मर्ज़ी से तय नहीं हुआ
क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि इस देश की आज़ाद हवा में मैं सांस ले रही हूं? जबकि मैं जानती हूं कि मेरी सोच तक पर पाबंदी लगी है।

क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि यहीं मुझे पेट भरने को अन्न मिल रहा है? जबकि मैं जानती हूं करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं।

क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि इस देश में औरत को देवी की तरह पूजा जाता है? जबकि मैं जानती हूं पत्थर की देवी की तरह औरत को सब कुछ चुपचाप सहन करना पड़ता है।

क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी संस्कृति सबसे महान है? जबकि मैं जानती हूं कि हमें विरासत में नफ़रत और ज़हर के अलावा कुछ नहीं मिला।

क्यो गर्व करूं मैं इस देश पर?
क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि तुम ऐसा कहते हो?

या इसलिए क्योंकि यहां रहने के लिए यही कहना होगा।

Friday, December 12, 2008

इस कीचड़ में कब तक?


अभी जिस वक्त मैं ये लिखने बैठी हूं रात के कोई साढ़े तीन बज रहे हैं। कायदे से मुझे अभी सो जाना चाहिए। ग्यारह घंटे तक थका देने वाली शिफ्ट के बाद कोई भी यही करेगा। लेकिन मैं जानती हूं मुझे नींद नहीं आएगी। नहीं...मैं किसी प्यार-वार के चक्कर में नहीं पड़ी हूं, मेरे ऊपर घर-परिवार की ज़िम्मेदारी भी नहीं है, मैं किसी कर्ज़ के बोझ से भी नहीं दबी हूं। हां बोझ है, उस जुनून का जो मुझे पत्रकारिता में खींच के लाया, उस वादे का जो मैंने अपने आप से किया था। लेकिन परिस्थितियां हर रोज़ बद से बदतर होती जा रहीं हैं।
बचपन में डार्विन का सिद्धांत पढ़ा था, योग्यतम की उत्तरजीविता....सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट। दुनिया कुछ भी मानती रहे, मैंने हमेशा यही माना कि डार्विन का सिद्धांत जानवरों के लिए है...इंसानों के लिए नहीं। आखिर कैसे एक इंसान अपने सरवाइवल के लिए दूसरे की बलि ले सकता है? बॉयोलॉजी के सर के साथ इसको लेकर काफी बहस भी की, कुछ दलीलें उन्होंने दीं, कुछ मैंने। १२वीं की बोर्ड परीक्षा में मैंने सिर्फ इसलिए डॉर्विन के सिद्धांत की विशेषताएं नहीं लिखी क्योंकि मैं उसके सिद्धांत पर भरोसा नहीं करती थी। सर अभी भी इस बात को लेकर मुझे छेड़ते हैं लेकिन मैं कई महीनों तक इसी गर्व के साथ जीती रही कि मैंने अपनी मर्ज़ी के खिलाफ़ काम नहीं किया। तब मैं स्कूल की एक छात्रा थी, ज़िंदगी के असली सबक अब सीखने को मिल रहे हैं लेकिन अब अपनी बात कहने की वो आज़ादी नहीं है, अब अपनी मर्ज़ी से काम करने की इजाज़त नहीं है। अब मैं पत्रकार जो हूं। आज की पत्रकार। अब मुझे वही करना होगा जो मुझे कहा जाएगा, बिना ना नुकुर किए, बिना बहस किए। क्योंकि सामने मेरे सवालों का जवाब देने के लिए, मेरी आपत्तियों के निदान के लिए मेरे सर नहीं, मेरे बॉस होंगे। चार साल पहले जब हम पत्रकारिता पढ़ रहे थे उन दिनों टीवी के स्क्रीन पर जोश से भरे, आत्म विश्वास से लबरेज़ नज़र आने वाले चेहरे आज न जाने क्यों बहुत धुंधले से लगते हैं। इन साढ़े-तीन चार सालों में मुंह बंद करके अपने आस-पास के लोगों को समझने की कोशिश की लेकिन देखती क्या हूं, यहां या तो कोई कुंठित प्राणी नज़र आता है या आत्म मुग्ध जीव। परेशानी उन कुंठित लोगों से नहीं है जो बेचारे दिन रात अपनी कुर्सी बचाने के जुगाड़ में लगे रहते हैं। परेशानी उन आत्म मुग्ध लोगों से है जिन्हें हर कामयाबी का सेहरा अपने सिर, और हर नाकामी का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ने की बीमारी है। इनकी दुनिया इन्हीं से शुरू होती है और इन्हीं पर ख़त्म होती है। अब या तो आप इनके पीछे-पीछे दुम हिलाते हुए घूमिए या बेआबरू होकर कोने में बैठिए। इनके अलावा भी कुछ लोग हैं, इन सबके चेहरे एक से हैं, झुंझलाए हुए, गुस्से से भरे, मानो खुद से ही नाराज़ हों। सभी दौड़े चले जा रहे हैं, पता नहीं किस ओर....मंजिल तक पहुंचना इनका लक्ष्य नहीं है, ये तो बस दौड़ रहे हैं, इसलिए क्योंकि सामने वाला दौड़ रहा है। इस उम्मीद में कि कभी तो मौका मिलेगा लंगड़ी फंसाने का। आज भले ही सातवे आसमान पर आपका बसेरा हो लेकिन कब आपसे धरती का टुकड़ा भी छिन जाएगा कोई नहीं बता सकता। मज़े की बात तो ये है कि आपके कमज़ोर पड़ते ही सबसे पहले वो लोग आपका साथ छोड़ते हैं जिन्हें आपने अपना सबसे करीबी माना था। वैसे सच ये भी है कि कमल कीचड़ में ही खिलता है। बस इस उम्मीद में इस पत्रकारिता का दामन थामे हुए हूं कि आज नहीं तो कल कोई कमल खिलेगा ज़रूर। और शायद तब मैं एक बार फिर पूरे जोश के साथ कह सकूंगी कि डार्विन का सिद्धांत इंसानों के लिए नहीं है।

Monday, December 8, 2008

मुझे कैसे रोकोगे?


मैं एक औरत हूं....ये बात मैं कभी भूलती नहीं हूं, और कभी भूलना चाहती भी नहीं हूं। लेकिन फिर भी वो मुझे बार-बार याद दिलाते हैं कि हां तुम एक औरत हो। एक दूसरे दर्जे की प्राणी। वो मेरे प्रवाह को रोकना चाहते हैं, मुझे जंजीरों में कैद करना चाहते हैं। वो डरते हैं कि कहीं मैं उनकी बनाई सीमाओं को तोड़ ना दूं, वो घबराते हैं कि कहीं मैं उनकी पहुंच से दूर उड़ ना जाऊं। वो हर रोज़ मेरे सामने एक दीवार खड़ी करते हैं, लेकिन मैं...मैं एक ही फलांग में उस दीवार को फांद जाती हूं। वो और बड़ी दीवार चुनते हैं, लेकिन मुझे रोक पाना अब उनके बस में नहीं है। वो कहते हैं कि मैं कमज़ोर हूं। मैं इंकार कहां करती हूं? यही तो मेरी जीत है, वो मुझे कमज़ोर समझते हैं फिर भी मुझे बांध नहीं पाते। वो कुढ़ते हैं, झल्लाते हैं और फिर मुझे दबाने की कोशिश करते हैं। जब मैं चुप रहती हूं तो वो मेरी चुप्पी से डरते हैं। और जब में बोलने लगती हूं तो वो कान बंद कर लेते हैं। उनकी इस छटपटाहट को देखकर मैं हंसती हूं, मुंह दबाकर नहीं, खिलखिलाकर हंसती हूं। याद नहीं कि कब उनकी इस झल्लाहट से मुझे प्यार हुआ, शायद तब, जब पहली बार जब मुझे खुली हवा में सांस लेते देखकर उनकी सांसें रुक गई, या तब, जब अपनी बनाई ज़मीन पर मुझे अपनी सफलता के किले बनाते देख उनके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक रही थी। ये सब कुछ हो रहा था और मैं आगे बढ़ते जा रही थी। मैं बढ़ूंगी, और आगे बढ़ूंगी और तब तक बढ़ते रहूंगी जब तक तुम मुझे आगे बढ़ने से रोकते रहोगे। कहा ना मैं औरत हूं...और इस आगे बढ़ती हुई औरत को रोक पाना अब तुम्हारे लिए मुमकिन नहीं।