सिर्फ 12 साल की थी वो। हरी-हरी
हिरनी जैसी आंखों वाली। मुहल्ले में गणपति पर हर साल डांस किया करती थी। मैं उसका
नाम नहीं जानती हूं, ये भी नहीं जानती कि वो कौन थी, पर उसके बारे में सोनाली से
सुना था कई बार। चार दिन पहले सोनाली ने बताया था कि रसोई में चाय बनाते हुए वो बुरी
तरह जल गई। 75 परसेंट बर्न है, अस्पताल में भर्ती है।
यकीन मानिए सबसे पहला खयाल
मुझे यही आया कि ये एक्सीडेंट नहीं सुसाइड की कोशिश है, और इसी से जुड़ा हुआ दूसरा
खयाल ये कि इसका ज़िम्मेदार ज़रूर कोई हैवान है, जो आदमी के भेष में रह रहा है। और
जब ये पता चला कि गैस का पाइप लीक होने की वजह से हादसा हुआ तो मुझे बहुत अफ़सोस
हुआ। अफ़सोस उस बच्ची के लिए भी, और अपनी सोच के लिए भी,...लेकिन सबसे ज़्यादा
अफ़सोस उस 50 फीसदी (अब शायद 50 फीसदी से ज़्यादा) आबादी के लिए हुआ जिसने अपोज़िट
सेक्स वाली 50 फीसदी (50 फीसदी से कम ही) आबादी का भरोसा खो दिया है।
सोनाली, मेरी मेड भी है,
मेरी दोस्त भी, और उसकी दुनिया में झांकने वाली मेरी खिड़की भी। वो अपने
घर-परिवार, अपने आस-पड़ोस और अपने दोस्तों के किस्से मुझे इस तरह सुनाती रहती है
कि मेरी भी अब उन लोगों से पहचान हो चली है। सोनाली कह रही थी कि “दीदी बहुत सुंदर थी वो”, और मैं सोच रही थी कि यकीनन सुंदर रही होगी, इसलिए
नहीं कि उसकी आंखें हरी थीं, इसलिए नहीं क्योंकि उसका रंग गोरा था, बल्कि इसलिए....क्योंकि
वो ज़िंदगी थी, उसके अंदर एक दिल धड़कता था, उसकी आंखों में एक सपना रहता था,
क्योंकि उसे छुप्पन छुपाई खेलना अच्छा लगता था, क्योंकि उसे बारिश में भीगना पसंद
था, क्योंकि वो अपने शरीर में हो रहे बदलावों के बोझ से दबी नहीं थी, क्योंकि एक
दिन वो भी अपनी मां की तरह अपने परिवार का भार उठाना चाहती थी, क्योंकि वो भी अपनी
क्लास में फस्ट आना चाहती थी,...क्योंकि वो ख़ुद से और इस दुनिया से प्यार करती थी।
पिछले चार दिनों में सोनाली बताती रही कि वो बच्ची
तकलीफ़ में है, अस्पताल में आखिरी सांसें ले रही है, और शायद इस यातना से जल्दी
मुक्ति की प्रार्थना कर रही है। और आज उसने जो बताया, वो सुनने के बाद मैं सन्नाटे
में हूं।
12 साल की वो बच्ची यातना
सिर्फ अस्पताल में नहीं सह रही है, अस्पताल पहुंचने से पहले से, बहुत पहले से वो
यातना झेल रही थी। उसका दिल धड़कता नहीं था बल्कि कांपता था तुम्हारे आने की आहट
से, उसकी आंखों में कोई सपना नहीं था, वहां सिर्फ तुम्हारा डर पसरा रहता था, उसके
शरीर में हो रहे बदलाव कुदरती प्रक्रिया का हिस्सा नहीं थे, वो तुम्हारे अत्याचार के
गवाह थे, छुप्पन-छुपाई का खेल नहीं वो तुमसे अपना स्वाभिमान बचाने की लड़ाई लड़
रही थी, वो नफ़रत करती थी ख़ुद से, तुम से और इस दुनिया से भी,...इतनी नफ़रत कि इस
दुनिया में रहना भी उसे गंवारा नहीं था। 12 साल की वो बच्ची जली नहीं थी, उसने खुद
को जलाया था,...उसने वाकई ख़ुदकुशी की कोशिश की थी,...और उसकी ख़ुदकुशी के लिए
वाकई वही हैवान ज़िम्मेदार था। हां, हैवान ही था वो। पांचवी क्लास में पढ़ने वाली एक
बच्ची, जिसे सही तरीके से हिज्जे तक मालूम नहीं थे, उसे सुसाइड नोट लिखने के लिए
मज़बूर करे, उसे इंसान कैसे कहूं मैं? अगर वो इंसान है, तो आज
मैं ख़ुद को इंसान कहे जाने से इनकार करती हूं। मैं खुद को इन हैवानों के साथ एक
ही स्पीसीज़ में रखे जाने का विरोध करती हूं।
इस बच्ची ने जो किया, वो अचानक
हो गया कोई हादसा, गुस्से में उठाया गया कोई कदम नहीं था ये,....महीनों डर के साए
में जीने, अपमान में जलने, तिल-तिल कर मरने के बाद उसने खुद को जला डालने का
फ़ैसला किया होगा। 12 साल की ही सही, लेकिन उसके अंदर औरत का दिल था,...वरना वो
यही आग वो उन लिज़लिज़े हाथों को लगाती जिसने उसे छुआ था, ये अंगारे वो उसके शरीर
में भरती जिसने उसकी आत्मा को झुलसा दिया था। ये सिर्फ शरीर पर लगी आग नहीं थी, ये
बददुआ थी उस मासूम की जो आज नहीं तो कल हम सबको लगेगी ज़रूर।
वो बच्ची ज़िंदा रहेगी या
नहीं, वो अब कभी कुछ कह पाएगी या नहीं पता नहीं। पर उसकी तरफ़ से मैं उस 50 फीसदी
आबादी से कुछ कहना चाहती हूं, जिसने धीरे-धीरे इस 50 फीसदी आबादी को इस मुकाम पर
ला खड़ा कर दिया है। मैं जानती हूं कि तुम सब उस हैवान का प्रतिनिधित्व नहीं करते
हो, मैं जानती हूं कि तुम्हारा और हमारा डीएनए करीब-करीब एक सा है, मैं जानती हूं
कि तुम सब हमें सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट नहीं समझते हो (या शायद समझते हो), लेकिन
इवॉल्यूशन की प्रक्रिया में कुछ तो ग़लत हो गया है। मैं कई बार ख़ुद से पूछती हूं
कि कहीं X और Y क्रोमोज़ोम्स के अलावा भी हम
दोनों के डीएनए में कुछ और बदलाव तो नहीं आ गया है? वरना एक ही स्पीसीज़ के दो जेंडर्स के बीच इतनी बड़ी
खाई कैसे बन जाती? खैर, कोई इमोशनल बात नहीं (वही इमोशन्स जिसे बाइ द वे तुम कई बार नाटक भी कह देते
हो), नैतिकता की कोई दुहाई नहीं, दया की कोई भीख़ नहीं, सिर्फ कुछ सवाल हैं जो मैं
अक्सर अपने आप से पूछती हूं, आज तुम खुद से पूछ कर देखो।
किसी लड़की को देखते ही
उसपर जानवर की तरह टूट पड़ना (जानवर तो इतने वहशी कभी नहीं होते), दांतों से,
हाथों से, नीयत से, आंखों से उसे नोंचना खसोटना, और ये ना कर सके तो अपनी कल्पना
में उसके साथ बलात्कार करना। बस? यही करने के लिए मिली है तुम्हें
ये ज़िंदगी? सोचो अगर इंसान होकर भी हमें यही करना होता, तो
प्रकृति ने हमें ये दिमाग नहीं दिया होता, विकास की ये संभावनाएं नहीं दी होती,....हम
भी जानवरों की तरह सिर्फ जी रहे होते और सेक्स कर रहे होते। तब तुम्हारे लिए ये
किसी पर जंग जीत लेने जैसी बात नहीं होती, और हमारे लिए तिल-तिल कर मरने का सवाल
भी नहीं। अगर ऐसा नहीं है तो इसका मतलब यही है कि अपोज़िट सेक्स वाला जीव सिर्फ
सेक्स ऑब्जेक्ट नहीं होता।
तुम
हमारे शरीर को अपनी जागीर समझते हो, तुम हमारी मर्ज़ी के बिना हमारे साथ कुछ भी कर
सकते हो, तुम्हारी बात ना मानने पर तुम हमें टॉर्चर कर सकते हो। ऐसा कब होता है? तभी ना, जब हम सामने वाले को
कमज़ोर समझते हैं, जब हमें लगता है कि हम उसपर हावी हो सकते हैं। बेअक्ल जानवर भी
ऐसा नहीं करते। कभी सोचा है क्यों? क्योंकि एक ही स्पीसीज़ के दो
जेंडर कभी एक दूसरे से कमज़ोर या ताकतवर नहीं हो सकते। ये प्रकृति का नियम है कि
जो कमज़ोर है, वो ज़िंदा नहीं रह सकता,...और अगर एक जेंडर ख़त्म हो जाए (शारीरिक,
मानसिक या मनोवैज्ञानिक रूप से) तो दूसरे जेंडर को ख़त्म होना ही पड़ेगा। शक्ति का संतुलन प्रकृति का सबसे बड़ा नियम है। और जब-जब सृष्ठि
में शक्ति का संतुलन बिगड़ता है, तब-तब सिर्फ विनाश होता है। तो क्या अब भी
तुम्हें लगता है कि हम कमज़ोर हैं?
हां कुछ कमज़ोरियां हैं हम में, हम इमोशनल हैं, कि हमारा दिल कोमल
है, कि हमारी प्रायोरिटी में हमारा नंबर सबके बाद आता है। शायद इसीलिए हम सहती
रहती हैं, कि तुम्हें तकलीफ़ ना हो, समाज में तुम्हारी इज़्जत बनी रहे। लेकिन जो दुनिया
हमें सम्मान से जीने का हक़ नहीं दे सकती वो दुनिया बनी रहे या ख़त्म हो जाए, इससे
जल्दी ही हमें फर्क पड़ना बंद हो जाएगा। ऐसी हैवानियत से तुम (तुम्हारे जेंडर के
ये लोग) हमारी कोमलता को ख़त्म कर रहे हो, तुम हमारे अंदर से प्यार के स्रोत को
सुखा रहे हो, और तुम्हें अहसास भी नहीं कि इससे सिर्फ हम नहीं तुम भी सफ़र कर रहे
हो। मैं नहीं जानती कि ये अवसाद है, सदमा
है, सब कुछ ख़त्म हो जाने का अहसास है, या गुस्से की इंतिहां, लेकिन तुम मेरा
भरोसा खोते जा रहे हो।
तुम्हारे जेंडर के कई लोग
मेरे आसपास रहते हैं, जिन्हें मैं पापा, भाई, पति, दोस्त जैसे नामों से पुकारती हूं।
मैं उन्हें जानती हूं, इसलिए उनसे प्यार करती हूं, उनपर भरोसा करती हूं। मुझे दुख़
है कि तुम्हारे आसपास रहने वाली मेरे जेंडर के लोग, उनपर भरोसा नहीं करते होंगे,
ठीक वैसे ही जैसे मैं तुम पर भरोसा नहीं करती, क्योंकि मैं तुम्हें सिर्फ एक ख़तरे
के तौर पर जानती हूं।
मैं तुमसे हम पर दया करने
के लिए नहीं कह रही हूं, हमारी तकलीफ़ समझने के लिए नहीं कह नही हूं, ना ही हमारी
जगह खुद को रखकर देखने के लिए कह रह हूं। तुम सिर्फ अपने लिए सोचो, और सोचो इतने
लोगों के अविश्वास को लेकर जी पाओगे तुम?
इतने लोगों के गुस्से और नफ़रत को झेल पाओगे तुम? और
अगर नहीं तो अपनी 50 फीसदी आबादी के दिमाग में फैल रहे इस वायरस से तुम्हें भी
लड़ना होगा। इस समाज में, इस सोच में, इस रवैये में आधी हिस्सेदारी
तुम्हारी भी है, इसलिए इसे बदलने की आधी ज़िम्मेदारी तुम्हारी भी है। पर सवाल ये
है कि क्या तुम इस ज़िम्मेदारी को निभाओगे? या यूं ही खड़े देखते रहोगे?