Saturday, December 6, 2008

मीडिया को दोष क्यों?


रात के कोई दस, सवा दस बजे का समय था जब मुंबई के कोलाबा में फायरिंग की ख़बर आई। करीब डेढ़ करोड़ लोगों का शहर है मुंबई, दिन भर में मर्डर, लूट-पाट और गोलीबारी की न जाने कितनी घटनाएं इस शहर में होती हैं। इस ख़बर को ज़्यादा फुटेज नहीं देना चाहिए। यही कहा था मेरे एक सीनियर साथी ने मुझसे। वैसे मेरी राय भी यही थी। लेकिन मुंबई का मामला था इसलिए मैंने ताज़ा ख़बर चलाकर अपनी ड्यूटी पूरी हुई मान ली। सोचा था एक-दो मिनट चला कर ख़बर उतार लेगें। वैसे भी भारत इंग्लैंड को पांचवे वनडे में भी हराने जा रहा था। वो ज़्यादा बड़ी ख़बर है, यही मानकर मैंने उस इन्फॉर्मेशन को भी लिखकर रख लिया। तभी सीएसटी से भी फायरिंग की ख़बर आई। वैसे दूसरे चैनल चार जगहों पर फायरिंग की ख़बर चला रहे थे। तभी मुंबई से अभिषेक का फोन आया और रवीश कुछ परेशान नज़र आने लगे। उन्होंने मुंबई की ख़बर को ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह चलाने को कहा। मैं इस पर कोई आपत्ति करती इससे पहले ही वो फोन थाम कर न्यूज़ रूम से बाहर निकल गए। खैर मुझसे जैसा कहा गया मैने वैसे ही किया। अब तो ख़बरों की बाढ़ सी आने लगी। यहां फायरिंग, वहां धमाका, यहां इतने मरे, वहां उतने घायल। ये क्या हो रहा है? कुछ भी साफ नहीं था। बस ख़बरें आती जा रही थीं और हम उनको ऑन-एयर भेजे जा रहे थे। हर पल एक नई ख़बर आती, और हर नई ख़बर पहले से ज़्यादा गंभीर होती जा रही थी। फिर पता चला कि मुंबई के ही नहीं, देश के ही नहीं बल्कि दुनिया के बेहतरीन होटलों में से एक ताज पर आतंकियों ने कब्ज़ा कर लिया है। कितने आतंकी हैं? उनके पास कितना विस्फोटक है? उनके इरादे क्या हैं? हम एक दूसरे से पूछ रहे थे लेकिन जवाब में बस एक शून्य ही मिलता। हां इन आतंकवादियों का मकसद बिल्कुल साफ था। वो था आतंक फैलाना। सीमा पर लड़ाइयां तो ये देश कई बार देख चुका है, देश में दंगे, धमाके, संसद पर हमला और ऐसी न जाने कितनी ही त्रासदियों से हम गुज़र चुके हैं, लेकिन देश की सीमा के अंदर ऐसे दुस्साहस से हमारा साबका इससे पहले नहीं पड़ा था। न्यूज़ रूम का वातावरण बिल्कुल बदल गया। चारों तरफ गज़ब की उत्तेजना थी, जैसे हम जंग पर जाने की तैयारी कर रहे हों। सारे मतभेद, सारी निराशा, सारी नारज़गी जाने कहां खो गई थी। सभी लोगों में जोश था, एक सहयोग की भावना थी, सिर्फ एक इच्छा कि उनके मोर्चे से कहीं कोई कमी ना रह जाए। खुद मैं, जो कुछ घंटे पहले तक कमज़ोरी की वजह से ठीक से चल नहीं पा रही थी अचानक अपने अंदर अलग ऊर्जा महसूस कर रही थी। मैं ही नहीं सभी लोग अपनी शिफ्ट के बारे में भूल चुके थे। जो लोग घर वापस चले गए थे वो वापस लौट गए थे, जो लोग वापस नहीं लौटे वो फोन करके पूछ रहे थे कि न्यूज़ रूम को उनकी ज़रूरत तो नहीं है? इस बीच एनएसजी और आर्मी को भी ऑपरेशन में शामिल करने का आदेश हो गया था। आतंक के खिलाफ़ जंग जारी थी। और ये सारी ख़बरें दर्शकों तक पहुंचाने की हमारी कोशिश भी। तुरंत कुछ लोग मुंबई रवाना हुए। इधर देश में हाइअलर्ट घोषित हुआ, वहां रिपोर्टर्स को अलर्ट कर दिया गया। क्या भूख, क्या प्यास, क्या घर और क्या परिवार न्यूज़ रूम इन सभी को भूल चुका था। लोग २४- २४ घंटे से ऑफिस में थे और ये भी पता नहीं था कि कितने घंटे और ऑफिस में रहना होगा। लेकिन क्या मजाल कि थकान किसी के आस-पास भी फटकी हो। कई घंटे यहां तक कि कई दिन गुज़र गए। ऑपरेशन ख़त्म हो गया, हमले की जांच शुरू हो गई लेकिन न्यूज़ रूम की गहमागहमी फिर भी जारी रही। यही न्यूज़ रूम का कैरेक्टर है, यही न्यूज़ रूम का मज़ा है। कुछ लोग कहते हैं जब ये हमला हुआ उस वक्त मीडिया सिर्फ सनसनी फैला रहा था। मीडिया को सिर्फ टीआरपी से मतलब है। कुछ ने तो यहां तक कहा कि न्यूज़ चैनल आतंकियों की मदद कर रहे थे। कहा जा रहा है कि ओबेरॉय में छिपे आतंकी टीवी के ज़रिए बाहर की जानकारी हासिल कर रहे थे। कुछ विदेशी नागरिक मीडिया से नाराज़ थे कि मीडिया उनकी लोकेशन टीवी पर दिखा रहा है। हां आलोचना करना हर किसी का हक़ है। और हर आलोचना का उत्तर देने का कोई मतलब भी नहीं। लेकिन फिर भी कहे बिना नहीं रहा जाता कि अगर हम इस हमले की पल-पल की रिपोर्ट ना दिखाते तो क्या करते? आखिर यही तो हमारा काम है। हो सकता है इस दौरान कोई आधी-अधूरी या ग़लत जानकारी न्यूज़ चैनलों ने दिखा दी हो, हो सकता है कुछ ऐसी सूचनाएं ऑन-एयर कर दी हों जिन्हें देशहित में छिपाया जा सकता था। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि ऐसी सिचुएशन में सबकुछ लाइव होता है। आपके पास मौका ही नहीं होता कुछ एडिट करने का, एनालिसिस करने का। जो जैसा है, वैसा ही दर्शकों के सामने रखना पड़ता है। इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है, ना ही शर्मिंदा होने की कोई बात है। इसलिए मेरी गुज़ारिश है कृपया मीडिया को दोष ना दें, उसे उसका काम करने दें।

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