Saturday, February 7, 2009

एक फिज़ा के बहाने


सोचा था इस मुद्दे पर कुछ नहीं लिखूंगी...क्योंकि अगर कुछ लिखा तो लोगों को बुरा लगेगा...लेकिन फिर सोचा मैं दुनिया की परवाह क्यों करूं? वैसे तो ये एक बहस भर थी...और बहस का विषय औरत हो तो क्या कहने। किसने क्या कहा ये नहीं लिखूंगी क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बस इस बहस का नतीजा क्या निकला वो भर बता देती हूं। नतीजा निकला कि १- लड़कियां घरों को तोड़ती हैं. २-आज की पढ़ी लिखी लड़कियां पैसे वाले लोगों और खास कर राजनीति से जुड़े लोगों को फंसाती हैं फिर उनसे पैसे ऐंठती हैं. ३- कामकाजी लड़कियों को ना तो ढंग से काम आता है और ना ही घर संभालना. ४- कामकाजी लड़कियां सिर्फ अपनी मुस्कान और अदाओं का खाती हैं. ५- लड़कियों का क्या है जब तक बिना कुछ किए पैसा मिल रहा है तब तक नौकरी करो नहीं तो शादी कर लो. ६-लड़कियां अपने काम को सीरियसली नहीं लेती...और अगर डांट पड़ जाए तो दो आंसू टपकाए और बात खत्म। वैसे लिस्ट और भी लंबी हो सकती है लेकिन घुमाफिरा कर थीं यही बातें। ज़ाहिर है बहस में हिस्सा लेने वाले सभी पुरुष थे। बीच-बीच में मुड़कर मेरी ओर भी देख लिया जाता था...शायद इस उम्मीद में कि मैं कुछ बोलूं। लेकिन मैं कुछ नहीं बोली...और कुछ बोलने का फायदा भी क्या था?
बात शुरु तो अनुराधा बाली, माफ कीजिए...फिज़ा मोहम्मद से हुई थी...लेकिन खत्म...खैर छोड़िये।
फिज़ा तो वैसे भी आजकल हॉट टॉपिक है...फिज़ा के बहाने लड़कियों को नैतिकता, संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले राजनीति में भी हैं और मीडिया में भी। कोई लड़की धर्म बदलकर किसी शादी-शुदा आदमी के साथ शादी कर ले...लड़का भी कौन? एक पूर्व मंत्री...यहीं तक होता तो चलो मान भी लेते, दोनों खुले आम अपने प्यार का इज़हार करते घूमते हैं...मीडिया को इंटरव्यू देते फिरते हैं। अब ये बात लोगों को कैसे हज़म होगी। पहली बार जब चांद मोहम्मद और फिज़ा ने मिलकर प्रेस कांफ्रेंस की थी तो सभी न्यूज़ चैनल वालों की बाछें खिल गई कि चलो आज का मसाला मिल गया। मेरे एक सहयोगी ने तब भी कहा था यार ये तो बड़ी चालू चीज़ है। और अब जब कि फिज़ा चांद मोहम्मद की पोल पट्टी खोलने पर तुली हुई है तो मेरे वही सहयोगी बड़े गर्व से कहते हैं देखो मैने पहले ही कहा था ना बड़ी चालू चीज़ है....। हां चालू है फिज़ा क्योंकि उसने एक शादी शुदा आदमी के लिए अपना सबकुछ छोड़ दिया। हां वो चालू है क्योंकि उसने समाज से डरे बिना इस सच को स्वीकार किया। वो चालू है क्योंकि अपने धोखेबाज़ पति के पाप पर छुपकर आंसू बहाने के बजाए उसने दुनिया के सामने अपना रोना रोया। वो चालू है कि क्योंकि एक कोने में पड़े रहकर खुद को कोसने के बजाए उसने चांद मोहम्मद से ज़िम्मेदारी लेने को कहा। मैं फिज़ा की समर्थक नहीं हूं। मुझे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि चांद मोहम्मद उसके पास वापस लौटता है या नहीं। मेरी दिलचस्पी इसमें भी नहीं है कि कौन चांद मोहम्मद की असली पत्नी है। लेकिन मैं एक औरत हूं और मुझे इस बात से फर्क पड़ता है जब फिज़ा के बहाने लोग औरतों पर फिकरे कसते हैं...मुझे फर्क पड़ता है जब नैतिकता के ठेकेदार औरतों को हद में रहने की सलाह देने लगते हैं। मुझे फर्क पड़ता है जब ऑफिस में घटिया मज़ाक के दौर चलते हैं और मेरे बगल में बैठे दो पुरुष सहयोगी एक दूसरे के कानों में कुछ फुसफुसाते हैं और एक घिनौनी सी हंसी हंसते हैं। जी हां मुझे फर्क पड़ता है जब खुद को पढ़े लिखे कहने वाला एक पत्रकार मैंगलोर में हुई लड़कियों की पिटाई को सही ठहराता है। तर्क ये कि जब कोई अपनी सीमा पार करता है तो किसी ना किसी को तो आगे आना ही होगा। तो अब आप बताएंगे हमें कि हमारी सीमा क्या है? आप समझाएंगे हमें कि हमारा चरित्र कैसा होना चाहिए? क्यों भला? आप कौन होते हैं हमारी सीमा तय करने वाले? हमारे चरित्र का ग्राफ बनाने वाले? हमने तो ये हक़ किसी को नहीं दिया। ये सिर्फ और सिर्फ हमारा अधिकार है। और अच्छा यही होगा कि कोई, मतलब कोई भी इस अधिकार में हस्तक्षेप करने की कोशिश ना करे। क्योंकि लड़कियों के ज़रा हाथ-पैर खोलते ही तुम्हारा दम फूलने लगा है। तो सोचो अगर पूरी परवाज़ ले ली तो क्या होगा?