Friday, October 26, 2007

अपनी दिशा

दिशा...पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण। यही या और भी । दस दिशाएं... क्या केवल दस...दहाई के छूते ही समाप्त। इससे तो कई बड़ा है दिशाऒं का दायरा। या कहें कि दिशाऒं का तो कोई दायरा ही नहीं है। जब जहां जिस ऒर खड़े हों मुंह बायें दिशा बन जाती है। क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि आपकी अपनी भी कोई दिशा हो सकती है। दसों दिशाऒं के प्रतीक दस घोड़ों के रथ पर सवार सूर्य की तरह आप भी अपनी दिशाऒं के स्वामी हो सकते हैं। क्या आपने कभी उस स्वामित्व को महसूस नहीं किया है।
चिट्ठों की यह दुनिया भी तो अपनी अपनी दिशा की द्योतक है। आप अपने चिट्ठे के स्वामी हैं। जो भी आपके चिट्ठे पर नज़र डालेगा वह कुछ देर के लिए ही सही उस दिशा में सोचने लगेगा जो आपने उसे दिखाई है। यह आपकी अपनी नितान्त मौलिक दिशा का प्रभाव है।

हम चाहते हैं कि आप अपनी दिशा से जुड़ें। इसे अपनी दिशा ही समझें। अपने विचार व्यक्त करें। बहस का माहौल तैंयार करें। चिट्ठों का यह संसार एक नया वैचारिक आन्दोलन खड़ा कर सकता है।कुछ और न सही हमें सोचने समझने के लिए प्रेरित कर सकता है। हमें अपनी दिशा अपना रास्ता खोजने में मदद कर सकता है। यह हमारी अपनी दिशा होगी।हमारा अपना अन्दाज़। ऒर वैसे भी-
क्यों अपनी तरह जीने का अन्दाज़ छोड़ दें
और है ही क्या अपना इस अन्दाज़ के सिवा।

Tuesday, October 23, 2007

पहाड़ की बात


पहाड़। क्या लगता है ये सुनकर। बहुधा यही कि हरी भरी वादियों के बीच उभरे शान्त चट्टानी इलाके। घने जंगल। सुन्दर नदियां। झरने ताल गाड़।
इन पहाड़ों के बीच कई संस्कृतियां पनपी हैं। विकसित हुई हैं। कुछ लुप्त हो गई हैं। कुछ बदल गई हैं। शेष बदल रही हैं। धीरे धीरे। समय के साथ। लेकिन जिस तरह इन पहाड़ों के बीच रहने वाले लोगों के नैसर्गिक सुख अपने हैं उसके बरक्स तमाम दुख भी अपने हैं। दुख जो बांटे तो जा सकते हैं। पर बांटे नहीं जाते। खैर पहाड़ के लोग नियति की तरह सुख दुख के इन सोपानों पर चढ़ते उतरते शान्त माहौल में अपनी ज़िन्दगी गुजार देते हैं।
अपने चिट्ठे के इस पहाड़ी इलाके में हम कोशिश करेंगे कि आपसे पहाड़ के पहाड़ियों के सुख दुख बांटें। जिस भी हद तक पहाड़ को जानने समझने जीने का मौका मिला है उसके अनुभव बयां करना भी पहाड़ को समझने का अच्छा ज़रिया हो सकता है।

आर्तनादः पांच दिन पिचहत्तर किलोमीटर




गंगोलीहाट में अभिलाषा एक प्रयास नाम से छात्रों का एक अनौपचारिक संगठन है जिसे रोहित भाई के साथ कुछ सालों पहले हम लोगों ने क्षेत्र के कुछ युवा साथियों की मदद से प्रारम्भ किया। हमें सूझी कि क्यों न‌ क्षेत्र के सबसे बीहड़ बेल और भैरंग पट्टी के इलाके की खाक छानी जाय। इस तरह तय हुआ पांच दिनों के गांव चलो अभियान का कार्यक्रम। सात आठ लोगों का हमारा दल गाते बजाते गांव गांव घूमा। पांच दिनों में पिचहत्तर किलोमीटर की पहाड़ी यात्रा थी यह। चट्टानों पर चढ़ती धूप ढ़लती शाम में चढ़ना उतरना। हमें मालूम हुआ कि यूं ही इस क्षेत्र को गंगोलीहाट का शोक नहीं कहा जाता।

बेल और भैरंग पट्टी इन दो पट्टियों में लगभग पचास गांव हैं जहां आज भी आवश्कता के हिसाब से न बिजली है न पानी ही। और सड़क तो आज भी एक सपना ही है। एक ग्राम प्रधान ने हमें बताया कि उन्होंने सड़क के लिए कई बार आन्दोलन किये। तत्कालीन विधायक नारायण राम आर्य के कार्यकाल में धोखे से आन्दोलन स्थगित करवा दिया गया। वादे कई बार हुए लेकिन उनका कोई अंश तक पूरा नहीं हुआ। नेताऒं का व्यवहार ग्रामीणों के लिए यह है कि सांसद बची सिंह रावत साल में एक बार चुनावों के दौर में इन क्षेत्रौं का हाल जानने पहुंचे। और फिर पांच साल के अपने कार्यकाल में कभी उनके दर्शन ग्रामीणों को नहीं हुए। प्रशासनिक अधिकारियों के लिए तो ये ग्रामीण अछूत की औकात रखते हैं। एक बुजुर्ग लगभग रोआंसे होकर हम से बोले कि मुझसे एक जनता दरबार के दौरान तत्कालीन उपजिलाधिकारी ने यह कहा कि पहले बोलना सीखकर आऒ फिर अपनी समस्या बताना।
सरकार दिन-ब-दिन कोई न कोई स्कूल खोलती है । स्कूल तो खुल जाते हैं लेकिन वहां पर्याप्त शिक्षक उपलब्ध नहीं कराये जाते। हमने एक दूरस्थ गांव चौरपाल में अपनी आंखों से देखा कि कि शिक्षक स्कूल से गायब थे। बच्चे आगन में बैठे शोर कर रहे थे। काफी ना नुकुर करने के बाद बच्चों ने बताया कि कि स्कूल में कभी घंटी तक नहीं बजती। मौजूदा समर में चौरपाल में इन्टर कौलेज है। जहां कहने को तो साइंस माध्यम के तौर पर है लेकिन वहां ना गणित के टीचर हैं ना ही बायोलौजी के। कोई शिक्षक इन बीहड़ गांवों में जाकर पढ़ाना पसन्द नहीं करता।
इन गांवों में महिलाऒं की जो स्थिति है वह महिला सशक्तिकरण के दावों की पोल खोलने के लिए काफी है। रिटायर फौजियों से प्राप्त की हुई कोटे की मुफ्त शराब पीकर इन महिलाऒं के पति रोज रात इन्हैं पीटते हैं। दिनभर काम के बोझ से थकी ये औरतें नियति मानकर इस अत्याचार को सह लेती हैं। महिला हिंसा विरोघी कोई भी कानून इनकी पहुंच से बहुत दूर है। कुछ महिलाओं ने जब अपनी दास्तान बयां की तो हमने उन्हें दसाईथल ( पिथौरागढ़ ज़िले का एक छोटा सा कस्बा) में महिलाओं द्वारा किये गए एक प्रयोग की जाकारी दी। इन महिलाओं ने अपने शराबी पतियों के खिलाफ़ बिच्छू घास की मदद से मोर्चा संभाला। जैसे ही किसी महिला का पति शराब पीकर घर में घुसता वो दूसरी महिलाओं को खबर कर देती और सभी महिलाएं बिच्छूघास लेकर उस शराबी पर पिल पड़तीं। ये प्रयोग शराब के विरुद्ध काफई हद तक सफल हुआ। पूरे गंगावली क्षेत्र में शराब ने महिलाओं को बुरी तरह परेशान किया है। २००६ में एक शराब विरोधी आंदोलन गंगोलीहाट में हुआ। जिसके बाद इलाके से शराब भट्टी तो हटा दी गई पर शराब की तस्करी अब भी बदस्तूर जारी है।

पानी की समस्या से बेल पट्टी और भैंरंग पट्टी का पूरा इलाका त्रस्त है। विडम्बना ये है कि सरयू और रामगंगा का पानी जिसे लगभग पचास किलोमीटर दूर ज़िला मुख्यालय पिथौरागढ़ को पाइपलाइनों द्वारा भेजा जाता है वो पानी दो से १० किलोमीटर के दूर के इलाकों में फैले इन गांवों तक नहीं पहुचाया जा सका है। ये ग्रामीण कई कोस की खड़ी चढ़ाई पार कर पीने का पानी लाने के लिए मजबूर हैं। तहसील मुख्यालय तक में पीने के पानी के लाले हैं। पिछले बीस सालों से प्रस्तावित लिफ्ट योजना अधर में है। अब जिस सालीखेत स्रोत से प्रस्तावित लिफ्ट योजना पर काम शुरू होने जा रहा है उसमें इतना पानी नहीं बचा है कि वो इन लगभग अस्सी गांवों की प्यास बुझा सके। लेकिन ना सरकार, ना जनप्रतिनिधि किसी का ध्यान इस ओर नहीं है।
इस यात्रा के दौरान जो कुछ भी हमने देखा या जो कुछ महसूस किया ऊपरी तौर पर देखने पर हमे वो हैरतअंगेज़ लग सकता है लेकिन सच मानिये हकीकत यही है......

Tuesday, October 9, 2007

कमाल विचारों की उड़ान का


विग्यान
एक बंदर कूदता है इस डाल से उस डाल।
देखते हैं उसे दो लोग।
पहला खिलखिला उठता है उसे देख यूं ही।
दूसरा उसे देखता है गौर से
और कहता है गति हुई।
बस इसी सोच का अदना सा अन्तर विग्यान है।


ब्लैक होल- अंतरिक्ष के गर्भ में छिपा रहस्य

बह्मांड के अनंत विस्तार में ढेरों रहस्य और अदभुत करिश्मे छिपे हुए हैं। ब्लैक होल भी अंतरिक्ष का ऐसा ही एक रहस्य है। इस अदभुत आकाशीय रचना को समझाने के लिए साइंटिस्टों ने कई सिद्यांत दिए, कई तर्क पेश किए। लेकिन क्या ब्लैक होल को समझना इतना आसान है? सैद्यांतिक तौर पर देखें तो हां लेकिन जब बात प्रायोगिक तौर पर इसे सिद्ध करने की आती है। तो इसे सिद्ध कर पाना संभव ही नहीं है। क्योंकि दुनिया की कोई भी प्रयोगशाला ब्लैक होल के अस्तित्व को साबित नहीं कर सकती। लेकिन हकीकत में ब्लैकहोल आखिर हैं क्या?
आम भाषा में कहें तो ब्लैक होल एक ऐसा तारा है जिसका गुरुत्वीय बल असीमित है। इतना ज्यादा कि प्रकाश तक इसकी गुरुत्वीय सीमा से बाहर नहीं निकल सकता। और ब्लैक होल का बनना उतना ही प्राकृतिक है जितना सूर्य का चमकना या ग्रहों का सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाना। ब्लैक होल वास्तव में एक तारा है। हमारे सूर्य से लाखों गुना बड़े आकार का तारा। तारों में हर वक्त नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया होती रहती है। और हर बार इस प्रकिया के साथ तारे की ऊर्जा भी घटती जाती है। करोड़ों सालों तक इस प्रकिया से गुजरने के बाद एक समय ऐसा आता है जब तारे के पास इतनी भी ऊर्जा नहीं होती कि वो अपने आकार तक को बनाए रख सके। और ये तारे तेज़ी से सिकुड़ने लगते हैं। ब्लैक होल बन रहे तारे का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, इसका घनत्व बढ़ता है और उसी अनुपात में तारे की गुरुत्वीय बल (ग्रेविटेशनल फोर्स) भी बढ़ता जाता है। ब्लैक होल मे बदल चुके तारे का गुरुत्वीय बल इतना ज़्यादा होता है कि कोई भी चीज़ इसकी गुरुत्वीय सीमा को पार करके बाहर नहीं आ सकती। कोई ऊर्जा भी नहीं। ब्लैक होल अपनी सीमा में आने वाली हर चीज़ को निगल लेता है।
लेकिन ये होता कैसे है? इस बात का जवाब साइंस के बेहद आसान सिद्यांतों में छिपा हुआ है। जब कभी हम आसमान की ओर कोई चीज़ उछालते हैं तो वो थोड़ी ऊपर तक जाने के बाद वापस धरती की ओर आने लगती है। क्योंकि पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल उसे अपनी ओर खींच लेता है। लेकिन अगर किसी चीज़ को बहुत तेज़ गति के साथ आसमान की ओर उछाला जाए तो वो गुरुत्वाकर्षण की सीमा से निकलकर अंतरिक्ष की ओर बढ़ती रहेगी। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण सीमा से बाहर निकलने के लिए ज़रूरी इस वेग को पलायन वेग कहते हैं। हर ग्रह, उपग्रह और आकाशीय पिंड का पलायन वेग अलग-अलग होता है। ये पलायन वेग उस पिंड के आकार, घनत्व या यूं कहें कि गुरुत्वीय बल पर निर्भर करता है। जिस पिंड का गुरुत्वीय बल जितना ज़्यादा होगा, उसका पलायन वेग भी उतना ही बढ़ जाएगा। अगर पृथ्वी की बात करें तो इसका पलायन वेग ११.२ किलोमीटर प्रति सैकिंड है। यानी जो पृथ्वी से जो भी रॉकेट या अंतरिक्ष यान अंतरिक्ष की ओर भेजे जाते हैं उनका वेग ११.२ किलोमीटर प्रति सैकिंड से ज़्यादा ही होता है। क्योंकि इससे कम वेग के साथ ये पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर नहीं निकल सकते। इसी तरह चंद्रमा का पलायन वेग सिर्फ २.४ किलोमीटर प्रति सैकिंड है। क्योंकि चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल पृथ्वी से करीब ६ गुना कम है।
अब अगर हम ऐसे किसी पिंड की कल्पना करें जिसका पलायन वेग प्रकाश की गति ( प्रकाश से तेज़ गति किसी चीज़ की नहीं होती) ज़्यादा है तो क्या होगा? ज़ाहिर है प्रकाश भी इस पिंड के गुरुत्वीय आकर्षण से बाहर नहीं निकल पाएगा। बस यही पिंड ब्लैक होल है।
ब्लैक होल जैसी किसी चीज़ का विचार एस्ट्रोलॉज़र्स के दिमाग में १७वीं शताब्दी में ही आ गया था। लेकिन १९३० में तीन साइंटिस्टों ने इसके बारे में गंभीरता से खोज करनी शुरू की। ओपनमेर, वोल्कॉफ और सिंडर ने अपनी रिसर्च के बाद बताया कि जब किसी बड़े तारे की ऊर्जा खत्म होने लगती है तो ये अपने गुरुत्वीय बल से खुद को भी नहीं बचा पाता। औऱ नष्ट होकर ब्लैक होल में बदल जाता है। हांलाकि इसे ब्लैक होल नाम इन तीनों ने नहीं दिया। इस तारे को ब्लैक होल का नाम जॉन व्हीलर ने दिया और ये नाम इस तारे के लिए बिल्कुल उपयुक्त भी है। क्योंकि ब्लैक होल को ना तो कोई देख पाया है और ना ही कभी कोई देख पाएगा। क्योंकि रोशनी की किरण तक को इसका तीव्र गुरुत्वीय बल अपने अंदर खींच लेता है। लेकिन ब्लैक होल बन जाना भी किसी तारे का अंत नहीं है। जाने माने साइंटिस्ट स्टीफन हॉकिंग ने १९७० में एक सिद्यांत के ज़रिये ब्लैकहोल को समझाने की कोशिश की। हॉकिंग का कहना है कि क्वांटम-मैकेनिक्स के मुताबिक ब्लैक होल लगातार विकिरण(रेडिएशन) छोड़ते रहते हैं। जिसकी वजह से इनका द्रव्यमान घटता रहता है। और ये सिकुड़ते जाते हैं। और आखिर कार ये तारा पूरी तरह से नष्ट हो जाता है।

क्या होगा अगर कोई ब्लैक होल में गिर जाए।

ब्लैक होल में गिरने का मतलब है, हमेशा-हमेशा के लिए अंतहीन अंधेरे में खो जाना। एक बार अगर कोई चीज़ ब्लैक होल में गिर जाए तो दुनियां की कोई भी ताकत उसे वापस नहीं खींच सकती। जैसे ही कोई चीज़ ब्लैक होल मे गिरती है तो ब्लैक होल का केंद्र उसे तेज़ी से अपनी ओर खींचने लगता है। इतनी तेज़ी से कि ब्लैक होल की परिधि से इसके केंद्र तक की सैकड़ों- हज़ारों किलोमीटर की दूरी को तय करने में इस चीज़ को महज कुछ सैकिंड ही लगते हैं। इसे समझने के लिए बस यही उदाहरण काफी होगा कि अगर सूर्य से १० लाख गुना ज़्यादा द्रव्यमान वाले वाले किसी ब्लैक होल में कोई चीज़ गिरनी शुरू होगी तो ब्लैक होल का केंद्र इसे तेज़ी से अपनी ओर खींचेगा। और अगर इस वस्तु की शुरुआती स्थिति ब्लैक होल की तृज्या से १० गुना दूरी पर हो तो इसे ब्लैक होल के हॉरिजन तक पहुंचने में लगेंगे आठ मिनट और इसके बाद इसके टुकड़े-टुकडे होकर बिखरने में लगेंगे सिर्फ ७ सैकिंड। और अगर कोई इंसान ६० लाख किलोमीटर दूर किसी ब्लैक होल में गिरने लगे तो सिर्फ आठ मिनट और सात सैंकिंड में उसका शरीर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। और ब्लैक होल का द्रव्यमान जितना कम होगा , मौत का समय भी उतना ही कम होता जाएगा।

क्या सूर्य भी ब्लैक होल में बदल जाएगा?

ये सच है कि कई सितारों की ज़िंदगी ब्लैक होल के रूप में ख़त्म होती है। लेकिन सूर्य के ब्लैक होल में बदलने की संभावना नहीं के बराबर है। क्योंकि ब्लैक होल में बदलने के लिए तारे का द्रव्यमान बहुत ज़्यादा होना चाहिए। हमारे सूर्य से लाखों गुना ज़्यादा। सूर्य का द्रव्यमान ब्लैकहोल में बदलने के लिए काफी नहीं है। एस्ट्रोनॉमी और एस्ट्रोफिज़िक्स के जानकार मानते हैं कि अगले ५ करोड़ सालों तक सूर्य को कुछ नहीं होने वाला। लेकिन इसके बाद सूर्य की ऊर्जा कम होने लगेगी और ये बुध और शुक्र को निगल जाएगा। इससे सूर्य का आकार बढ़ जाएगा। ऐसा होने पर धरती का तापमान कई गुना बढ़ जाएगा। महासागर उबलने लगेंगे और जीना मुश्किल हो जाएगा। और यही होगी पृथ्वी पर जीवन के अंत की शुरूआत। पृथ्वी पर उथल-पुथल मचाने के बाद सूर्य एक सफेद बौने तारे(व्हाइट ड्वॉर्फ़ स्टार) में बदल जाएगा। और अगर किसी वजह से सूर्य ब्लैक होल में बदल भी गया तो ये इतना मामूली ब्लैक होल होगा कि ब्रह्मांड में इसके होने या ना होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। इस ब्लैक होल की सीमा सिर्फ़ तीन किलोमीटर होगी। यानी पृथ्वी कम से कम इस ब्लैक होल में गिर कर तो खत्म नहीं होगी। लेकिन इससे कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि सूर्य के बिना तो पृथ्वी वैसे ही ख़त्म हो चुकी होगा। लेकिन ये सब होगा करीब आठ करोड़ साल के बाद...क्या पता तब तक इंसान पृथ्वी के विकल्प के रूप में कोई और ग्रह ही खोज ले।

Saturday, October 6, 2007

फ़लक

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पुरानी डायरी
एक दौर था जब डायरी लिखने का शौक परवान चढ़ा था। वो कोई रोज की दिनचर्या में से कुछ खास रात सोने से पहले लिखने जैसा नही था। बल्कि एक स्लैम बुक की तरह दोस्तों को अपनी डायरी दे देना। और उसमें उन लोगों का प्रोफाइल (मसलन जन्म दिन पसंद नापसंद) और कुछ शायरियां पाट दी जाती थी। लेकिन उनमें से कुछ लोगों ने लीक से हटकर कुछ आलेख लिखे। ऎसे आलेख जो जितने बार पढ़ जाएं प्रेरणा ही देते हैं।
पुरानी डायरी में सहेजे ऎसे कुछ आलेखों को यहां सहेजा है।
पुरानी डायरी के कुछ अंश-----

उमेश के लिए
२१ मई २००४ कमलेश उप्रेती
यूं तो कोई बन्धन नहीं कि ये लिखना है वो लिखना है। इसलिये खुलकर काफी चीज़ें कागज़ पर उड़ेली जा सकती हैं। डायरी लिखना एकमात्र शौक या शगल नहीं होता है। ये एक दस्तावेज भी होता है अपने वक्त का। इसमें कुछ भी अगर हम लेखते हैं वो उथला नहीं होना चाहिये।समय रहते अगर हम अपनी पुरी आदतें शिद्दत से बयान करते हैं तो हमारे भविष्य मे ये बातें जब इतिहास हो जायेंगी तो उसमें विरोधाभास नहीं होंगे। उस पर सम्भावना नहीं रहेंगी कि मिथकों का आरोपण किया जाय। किसी वक्त में अगर हम चाहते हैं कि सच्चाई लिखें तो हमें अपने आसपास की परिस्थितियां राजनैतिक सामाजिक सब पर एक सही और पैनी नज़र रखनी होगी।हम जब पढ़ते हैं सुनते हैं या किसी बाह्य माध्यम से ग्रहण करते हैं उस पर हमारी द्रिष्टि आलोचनात्मक होनी चाहिए। यही तरीका है जिससे हम किसी व्यक्ति व्यव्स्था या घटना को सही सही पहचान सकते हैं।

२७ दिसम्बर २००४ रोहित
यह डायरी लिखने से पहले मैं आगे के पन्नों में कमलेश दा का लेख पढ़ चुका हूं। सहमत हूं कि डायरी एक ठोस दस्तावेज़ बन सकती है। इसे व्यक्तिगत बनाने के नाम पर अति संकुचित कर देना ग़लत होगा। डायरी एक माधयम हो सकता है एक दूसरे को जानने का। और एक रचनात्मक बहस का माहौल तैयार किया जा सकता है। मगर ज़रूरत है कि डायरी स्लैम बुक इस तरह की चीज़ों को रूख देने का। क्योंकि जहां शून्य होता है वहीं शुरूआत होती है। प्रायोजन की दिशा में भटकाव भी होता है। ज़रूरत है एक सही दिशा देने की। एक पहल की।
हर हमेशा तर्क देने में विकल्प के प्रस्तुतीकरण की आवश्यकता होती है । यदि मैं विकल्प नहीं देता हू़ तो मेरा तर्क अपने धरातल पर ठोस नहीं है। लेकिन फिर भी मैं सोचता हूं कि डायरी में जो लेखन है उसे कहीं न कहीं अति संकुचित ही कर दिया जाता है। हो सकता है मैं ग़लत हूं। अग्रलिखित मेरा लेख मेरे इस तर्क पर विकल्प का प्रस्तुतीकरण भी कर रहा है। क्योंकि डायरी लेखन भी एक रचनात्मक प्रयास ही है।

जामिया रक्से कुनाहो के तेरी ईद है आज

जामिया मिल्लिया में इन पांच दिनों बड़ी रौनक रही। आज मेला खतम हो गया तो बड़ा तो बड़ा सूनापन महसूस हो रहा है। भीड़ अक्सर परेशान करती है पर कभी कभी खुशनुमा भी मालूम होती है। खासकर इस भीड़ का हिस्सा जब युवा चेहरे हों। हंसते चहकते। २८ अक्टूबर से ३ नवम्बर जामिया में तालिमी मेला अपनी रौनक बिखेरता रहा। कभी वादविवाद कभी गाना बजाना कभी लैक्चर तो कभी थियेटर। अलग अलग तरह के ७० कार्यक्रम । किताबों खाने पीने के सामानों और जामिया के अलग अलग विभागों के स्टाल। हज़ारों की भीड़। संगीत कार्यक्रमों में की गई हूटिंग और मस्ती भरे ये पांच दिन।
जामिया केवल एक यूनिवर्सिटी का नाम नहीं है बल्कि एक पूरी बिरादरी है। हर साल होने वाले तालिमी मेले में छात्रों के साथ यह बिरादरी भी बड़े जोश से भाग लेती है। १९४० में जब तालिमी मेला मनाया जाने लगा तो उसका मकसद ही आस पास की बस्ती के लोगों को विभिन्न सांस्क्रितिक कार्यक्रमों के माध्यम से तालीम देना था। जिस संघर्ष के बूते जामिया के दयार ने यह खूबसूरती हासिल की है उससे सीख मिलती है कि बड़े सपने के सकार होने के पीछे जद्दोजहद का इतिहास छिपा रहता है। १९२८ में चंद लोगों ने असहयोग आन्दोलन में अंग्रेजी तालीम का विरोध करने के मकसद से जामिया की नीव रखी। तब से अब तक के सफर के बीच वो इच्छाशक्ति हमेशा ज़िदा रही जो कभी हारती नहीं।

दीवाली
रौशन हुए दीप
घर सजे
पोस्टरों और बहुमूल्य वस्तुऒं से
सजने लगा भौतिकवादी बाज़ार।
होने लगा घमासान
व्यापार का व्यापारियों का।
एम्बेसडर या फिर
अन्य कम्पनियों के
चार पहियों से वो निकले।
और की खरीददारी।
ये संसार
लग रहा था एक बाज़ार।
जहां होता है मूल्य
बस दम चीज़ों का।
मुद्रा और वस्तु।
मानव होते हैं
नहीं होते मानव मूल्य।
और उस दिन
जब आई दीवाली
जैसे छिड़ गई हो जंग।
बज गई हो रणभेरी।
उठ रहा था धुआं धूं-धूं।
हो रहा था विस्फोट।
रोशनी तो थी ही
पर अंधेरे के सागर में
अस्तित्वहीन थी वह।
हर ऒर था धुंए का साम्राज्य।
जैसे दीवाली के आंखिरी दिन
जल गई हो मानवता।
बुझ गए हों चराग।
बारूद के जलते ही
बन गई हो मानवता
बारूद की तरह।
हो गया हो विस्फोट मानवमूल्यों पर
तेज़ और तेज़।

Friday, October 5, 2007

आधी दुनिया

मनसा, वाचा, कर्मणा...

ऐसे भी हैं लोग...
इस कालम में हम ऐसे लोगों से आपको मिलाएंगे जो अपने अपने क्षेत्र में लीक से हटकर छोटे बड़े प्रयासों से समाज को बदलने की कोशिश कर रहें हैं। ऐसे लोग जो मीडिया हाइप के लिए काम नहीं करते। जिन्हें व्यवस्था की खामियां इस क़दर कचोटती हैं कि वो इसके खिलाफ जंग का ऐलान कर देते हैं।जंग लाज़मी नहीं कि तलवारों से ही लड़ी जाय।जंग लाज़मी नहीं कि तलवारों से ही लड़ी जाय। लाजमी है विचारों की जद्दोजहद और लड़ने की हौसला।




पी साईनाथ
एक ऎसे पत्रकार जिन्होंने पत्रकारिता के असल मूल्यों के लिए काम किया कर रहे हैं। उनकी किताब 'every body loves a good draught' के हिन्दी अनुवाद 'तीसरी फ़सल' को पढ़कर आप उनके काम का एक हद तक मूल्यांकन कर सकते हैं । इस किताब में वो बताते हैं कि किस तरह देश के अलग अलग हिस्सों में अफ़सरसाही ने गांव का शोषण किया है। कैसे ग्रामीण विकास के नाम पर योजनाऒं के लिए स्वीकृत पैसे को काम होने से पहले ही हड़प लिया जाता है। गांवों के लोगों को इसकी भनक भी नहीं लगती और योजनांएं कागज़ पर तैयार सरकारी फ़ाईलों की शोभा बढ़ाती हैं। इसमें सरकार नेता अफसर सभी की मिलीभगत होती है। गांव के लोग इस सियासत को समझ नहीं पाते। कोई बिरला आवाज़ उठाता भी है तो उसकी आवाज़ कुचल दी जाती है।
गांवो में पत्रकारिता के इतने बुरे हाल हैं कि हॉकर और पत्रकार के बौद्धिक स्तर में कोई खास अन्तर नहीं है। जो कोई भी साल भर में सबसे ज़्यादा एड दे दे वही पत्रकार है। ऍसे में पत्रकारिता के जनसरोकारों से जुड़ पाने की उम्मीद भी बेमानी है।
साईनाथ ने जो मिसाल गांवो के स्तर पर पत्रकारिता करके पेश की है वो भी उस दौर में जब लोग प्रसिद्धि की भूख और ग्लैमर के चलते पत्रकारिता से जुड़ रहे हैं सचमुच प्रेरणा दायक है। मैगसेसे पुरस्कार शायद उनके लिए महत्व ना रखता हो। ऐसे और भी पत्रकार गुमनामी के अन्धेरे में जी रहे हैं जिन्हें नाम से खास मतलब नहीं है। लेकिन ऐसे लोग कम हैं। बहुत कम।

जब किसी की मां मर जाती है तो वह बालिग हो जाता है।

बुधवार को अस्मा जहांगीर जामिया में थी। उन्होंने पाकिस्तान के आन्तरिक हालातों से जामिया को रूबरू कराया। बात खासकर पाकिस्तान में वकीलों द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन पर केन्द्रित रही। उनका दर्द यही था कि पाकिस्तान में वकीलों पर हुए घोर अत्याचार के खिलाफ भारत का विरोध दर्ज नहीं हुआ। सुनिये उन्हीं की जबानी उनका दर्द। ये बातें हिन्दी में अनूदित करके मैं यहां दे रहा हूं।
नौ मार्च को जब पाकिस्तानी न्याय पालिका को समाप्त पज़ाय घोषित किया गया तौ यह अवैधाानिक थाा। बलूच राष्ट्रवादी‍ डाक्टर अीचर किसी को भी कभी भी बंदी बना लिया जाता। मंगलवार को वकीलों ने जो विरोध प्रदर्शन किया वाे उनकी अन्तरआत्मा की आवाज थी। लोग इस आन्दोलन में शामिल होना चाहते थे। पर वे डरे हुए थे। इस बीच काउन्सिल के अध्यक्ष का बयान आया कि सेना के शाषन में न्याय व्यवस्था कायम नहीं की जा सकती।
वकीलों के बीच फैज की लोकप्रिय पंक्तियां हम देखेंगे गूज रही थी। सैकडों की तादात में पुरूष महिलाएं सडकाें पर गाते तालियां बजाते नाच रहे थे। यह विरोध का एक अलग अन्दाज था। एक वकील ने चुटकी लेते हुए एक महिला वकील से कहा था मैडम आज खुलकर नाचिये। मौलवी आपको नहीं रोकेगा।
यह केवल उच्च वर्ग की बार एसोसिएशन का आन्दोलन नहीं था। उन वकीलों में कई एसे भी थे जिनके पास माेटरसाइकिल तक खरीदने का पैसा नहीं था। यह आन्दोलन लोकतन्त्र और न्याय के शाषन के लिए था। सक्रिय कार्यकर्ताऒं को गिरफ्तार किया जा रहा था। मीडिया को नियन्र्रित किया जा रहा था। पुलिस जितना बर्बर हो सकती थी हुई। लाठी कितनी बेदर्द हा सकती है यह मैने देखा।
बेनजीर ने मरने के पहले एक सभा में कहा था कि वह शान्ति की ऒर एक बदलाव चाहती हैं। लेकिन आलम यह है कि आत्मघाती बम ताकिस्तान के लिये खुले रहस्य की तरह हैं। उन दिनों लाउडस्पीकर में बार बार अनाउंस किया जा रहा था कि औरतें घर से बाहर ना निकलें कहीं भी आत्मघाती बम हो सकते हैं। हम हिंसा को जी रहे थे। हमें खून के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था।
यहां मीडिया की भूमिका अच्छी रही। उसने हिंसा को हाइप नहीं किया। पाकिस्तान के लोगों में मुसर्रफ की छवि एक डबल क्रोसर की बन गई है। वह कहीं भी किसी का भी छल सकता है।
चुनावों के दौरान एक वमटर की प्रति क्रिया से पाकिस्तान का दर्द समझा जा सकता है। उसने डर के माहौल में वोट डालने सम्बन्धी एक प्रश्न के कहा था जब किसी की मां मर जाती है तो वह बालिग हो जाता है।

अक्स

जीने का जज्बा


कैसे कहैं कि कोई बुरा ख्वाब नहीं है


इसे कहते हैं खूबसूरती कि इन्तहां जाने क्यों ये आंखें आज भी कुछ बोलती हैं




भीड़ की आदत नहीं है मैं अभी मासूम हूं


शब्द ही नहीं चित्र भी होते हैं विचारों का आइना

तय करो किस ओर हो.....

कई विचार....ढेरों विकल्प.....पर आपको तय करना ही होगा कि आखिर....किस ओर हैं आप

आम आदमी का स्वास्थ्य

भारतीय जनसंचार संस्थान में पत्रकारिता की पढाई कर रहे छात्र छात्राऒं के लिए एक कार्यशाला का आयोजन किया गया। कार्यशाला का विषय था जनस्चास्थ्य यवं जनसंचार। जनस्वास्थ्य के तत्वावधान में आयोजित एस कार्यक्रम में जो उठाये गये वो काफी अहम थे मसलन बडे बडे अस्पतालों नर्सिंग होम अदि के बडे शहरों से लेकर छोटे शहरों तक में खुल जाने के बावजूद क्या कारण हैं कि आम आदमी के स्वास्थ्य का स्थिति अब तक नहीं सुधर पाई है। हैजा निमोनिया एनीमिया डैंगू जैसे रोगों से मरने वाले लोगों में कमी नहीं हो पा रही। यहां मीडिया की भूमिका बडी अहम हो जाती है कि बावजूद इन बत्तर हालातों के मीडिया स्वास्थ्य के मुद्दों को जगह देने को तैयार नहीं है। जगह मिल भी रही है तो फिटनेस या सेक्स सरीखे कम जरूरी मुद्दो को या फिर बडीबडी कम्पनियों द्वारा कराये जा रहे शोधों को जिनका आम आदमी की बीमारियों से कोई सरोकार ही नहीं है। आजादी के बाद जबसे वैशवीकरण ने उद्योगों की ज़मीन भारत में तैयार की हैतबसे स्वास्थ्य भी एक उद्योग के रूप में विकसित हुआ। बडे बडे अस्पताल बने। दिल्ली में १९९८ में अपोलो अस्पताल को सरकार ने इस शर्त पर हज़ारों एकड ज़मीन को १०० करोड रूपये की १५ एकड ज़मीन महज एक रूपये प्रति वर्ष की लीज पर दे दी गई किवहां कुल क्षमता का एक तिहाई गरीबों के मुफ्त इलाज़ के लिए होगा। लेकिन जानकार बताते हैं कि एसा हो नहीं रहा।

Thursday, October 4, 2007

नई सोच

ज़माना बदल रहा है।
फिर हमारी सोच क्यों न बदले
क्यों न पनपे एक नई सोच