Friday, October 5, 2007

मनसा, वाचा, कर्मणा...

ऐसे भी हैं लोग...
इस कालम में हम ऐसे लोगों से आपको मिलाएंगे जो अपने अपने क्षेत्र में लीक से हटकर छोटे बड़े प्रयासों से समाज को बदलने की कोशिश कर रहें हैं। ऐसे लोग जो मीडिया हाइप के लिए काम नहीं करते। जिन्हें व्यवस्था की खामियां इस क़दर कचोटती हैं कि वो इसके खिलाफ जंग का ऐलान कर देते हैं।जंग लाज़मी नहीं कि तलवारों से ही लड़ी जाय।जंग लाज़मी नहीं कि तलवारों से ही लड़ी जाय। लाजमी है विचारों की जद्दोजहद और लड़ने की हौसला।




पी साईनाथ
एक ऎसे पत्रकार जिन्होंने पत्रकारिता के असल मूल्यों के लिए काम किया कर रहे हैं। उनकी किताब 'every body loves a good draught' के हिन्दी अनुवाद 'तीसरी फ़सल' को पढ़कर आप उनके काम का एक हद तक मूल्यांकन कर सकते हैं । इस किताब में वो बताते हैं कि किस तरह देश के अलग अलग हिस्सों में अफ़सरसाही ने गांव का शोषण किया है। कैसे ग्रामीण विकास के नाम पर योजनाऒं के लिए स्वीकृत पैसे को काम होने से पहले ही हड़प लिया जाता है। गांवों के लोगों को इसकी भनक भी नहीं लगती और योजनांएं कागज़ पर तैयार सरकारी फ़ाईलों की शोभा बढ़ाती हैं। इसमें सरकार नेता अफसर सभी की मिलीभगत होती है। गांव के लोग इस सियासत को समझ नहीं पाते। कोई बिरला आवाज़ उठाता भी है तो उसकी आवाज़ कुचल दी जाती है।
गांवो में पत्रकारिता के इतने बुरे हाल हैं कि हॉकर और पत्रकार के बौद्धिक स्तर में कोई खास अन्तर नहीं है। जो कोई भी साल भर में सबसे ज़्यादा एड दे दे वही पत्रकार है। ऍसे में पत्रकारिता के जनसरोकारों से जुड़ पाने की उम्मीद भी बेमानी है।
साईनाथ ने जो मिसाल गांवो के स्तर पर पत्रकारिता करके पेश की है वो भी उस दौर में जब लोग प्रसिद्धि की भूख और ग्लैमर के चलते पत्रकारिता से जुड़ रहे हैं सचमुच प्रेरणा दायक है। मैगसेसे पुरस्कार शायद उनके लिए महत्व ना रखता हो। ऐसे और भी पत्रकार गुमनामी के अन्धेरे में जी रहे हैं जिन्हें नाम से खास मतलब नहीं है। लेकिन ऐसे लोग कम हैं। बहुत कम।

जब किसी की मां मर जाती है तो वह बालिग हो जाता है।

बुधवार को अस्मा जहांगीर जामिया में थी। उन्होंने पाकिस्तान के आन्तरिक हालातों से जामिया को रूबरू कराया। बात खासकर पाकिस्तान में वकीलों द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन पर केन्द्रित रही। उनका दर्द यही था कि पाकिस्तान में वकीलों पर हुए घोर अत्याचार के खिलाफ भारत का विरोध दर्ज नहीं हुआ। सुनिये उन्हीं की जबानी उनका दर्द। ये बातें हिन्दी में अनूदित करके मैं यहां दे रहा हूं।
नौ मार्च को जब पाकिस्तानी न्याय पालिका को समाप्त पज़ाय घोषित किया गया तौ यह अवैधाानिक थाा। बलूच राष्ट्रवादी‍ डाक्टर अीचर किसी को भी कभी भी बंदी बना लिया जाता। मंगलवार को वकीलों ने जो विरोध प्रदर्शन किया वाे उनकी अन्तरआत्मा की आवाज थी। लोग इस आन्दोलन में शामिल होना चाहते थे। पर वे डरे हुए थे। इस बीच काउन्सिल के अध्यक्ष का बयान आया कि सेना के शाषन में न्याय व्यवस्था कायम नहीं की जा सकती।
वकीलों के बीच फैज की लोकप्रिय पंक्तियां हम देखेंगे गूज रही थी। सैकडों की तादात में पुरूष महिलाएं सडकाें पर गाते तालियां बजाते नाच रहे थे। यह विरोध का एक अलग अन्दाज था। एक वकील ने चुटकी लेते हुए एक महिला वकील से कहा था मैडम आज खुलकर नाचिये। मौलवी आपको नहीं रोकेगा।
यह केवल उच्च वर्ग की बार एसोसिएशन का आन्दोलन नहीं था। उन वकीलों में कई एसे भी थे जिनके पास माेटरसाइकिल तक खरीदने का पैसा नहीं था। यह आन्दोलन लोकतन्त्र और न्याय के शाषन के लिए था। सक्रिय कार्यकर्ताऒं को गिरफ्तार किया जा रहा था। मीडिया को नियन्र्रित किया जा रहा था। पुलिस जितना बर्बर हो सकती थी हुई। लाठी कितनी बेदर्द हा सकती है यह मैने देखा।
बेनजीर ने मरने के पहले एक सभा में कहा था कि वह शान्ति की ऒर एक बदलाव चाहती हैं। लेकिन आलम यह है कि आत्मघाती बम ताकिस्तान के लिये खुले रहस्य की तरह हैं। उन दिनों लाउडस्पीकर में बार बार अनाउंस किया जा रहा था कि औरतें घर से बाहर ना निकलें कहीं भी आत्मघाती बम हो सकते हैं। हम हिंसा को जी रहे थे। हमें खून के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था।
यहां मीडिया की भूमिका अच्छी रही। उसने हिंसा को हाइप नहीं किया। पाकिस्तान के लोगों में मुसर्रफ की छवि एक डबल क्रोसर की बन गई है। वह कहीं भी किसी का भी छल सकता है।
चुनावों के दौरान एक वमटर की प्रति क्रिया से पाकिस्तान का दर्द समझा जा सकता है। उसने डर के माहौल में वोट डालने सम्बन्धी एक प्रश्न के कहा था जब किसी की मां मर जाती है तो वह बालिग हो जाता है।

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