Saturday, April 25, 2009

और क्या कहूं?


कई दिन, या यूं कहूं कई महीने हो गए हैं कुछ भी लिखे हुए। ऑफिस में दो लाइन के वीओवीटी या चार लाइन के पैकेज लिख लेने मात्र को लिखना कैसे कहूं समझ में नहीं आता। लेकिन घर पर चाहते हुए भी कुछ लिख नहीं पा रही थी। ये शायद गुस्से की अधिकता है या सोच की, विचारों को शब्द ही नहीं मिल पा रहे थे। लेकिन थैक्स टू विनोद जी। जिनके ई मेल ने मुझे फिर से लिखने की प्रेरणा दी। पर्सनली तो विनोद जी को नहीं हीं जानती हूं लेकिन उनके ब्लॉग और मुझे भेजे गए उनके ई-मेल को पढ़कर इतना तो पता चल ही गया है कि वो बेहद पॉज़िटिव सोच रखते हैं। या शायद मैं कुछ ज़्यादा ही निगेटिव हो चली हूं। विनोद जी कहते हैं कि फिज़ा कोई दूध पीती, मासूम बच्ची नहीं है कि चांद मुहम्मद की बातों में आ गई। उनका मानना है कि जो हुआ उसके लिए फिज़ा और चांद मुहम्मद दोनों ही ज़िम्मेदार हैं। विनोद जी को मीडिया के रोल पर भी आपत्ति है। साथ ही इस बात से नाराज़गी भी कि इन बातों को मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है। बिल्कुल सही बात है। मैं पूरी तरह उनकी बात से सहमत हूं कि बात करने से ही बात बनेगी। इसलिए मुझे लगा कि उनकी आपत्तियों का जवाब देना बनता है। सबसे पहली बात फिज़ा की मासूमियत की बात...मैंने पहले भी कहा है कि मैं फिज़ा की समर्थक नहीं हूं। पहले तो मैं ये ही नहीं मानती हूं कि फिज़ा मासूम है, या उसे बहलाया-फुसलाया गया है। मेरा तो बस इतना कहना है कि ज़िम्मेदारी दोनों की है। और चांद मुहम्मद उससे पल्ला नहीं झाड़ सकता। दूसरी बात ये कि सवाल फिज़ा का है ही नहीं। सवाल महिलाओं का है, उनके आत्मसम्मान का है। और किसी को भी हक़ नहीं है कि वो इस आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए
चांद और फिज़ा के बीच जो कुछ भी हुआ, वो उनका पर्सनल मामला है। ये विनोद जी भी मानते हैं कि जो हुआ उसके लिए चांद औऱ फिज़ा दोनों ज़िम्मेदार हैं लेकिन अगर गलती सिर्फ अनुराधा की भी होती तो भी क्या इसको आधार बनाकर महिलाओं के चरित्र पर अंगुली उठाना। ये कहना कि महिलाएं आगे बढ़ने के लिए पुरुषों का इस्तेमाल करती हैं। क्या ये जायज़ है? ये कहना कि महिलाओं को सब कुछ पका-पकाया मिल जाता है। क्या ये उनके साथ अन्याय नहीं है? घर और बाहर की दोहरी ज़िम्मेदारियों को निभाना और ज़रा सी चूक होने पर दोनों जगह ताने सुनना। क्या यही महिलाओं की नियति है। जब औरत घर से बाहर निकलकर ऑफिस जाती है तो पिता, पति या भाई को लगता है कि वो उन्हें इग्नोर कर रही है। बच्चे को टाइम नहीं दे रही है। सास-ससुर की सेवा नहीं कर रही है। और जब यही पिता, पति और भाई ऑफिस जाते हैं तो अपनी कुलीग को मैटरनिटी लीव मिलना वो अपने साथ अन्याय मानते हैं। मुझे सिर्फ इस दोहरे मापदंडों से आपत्ति है। औरत का अस्तित्व, उसकी आइडेंटी...क्या इसकी कोई जगह नहीं है पुरुषों की डिक्शनरी में। पिछले दिनों मीडिया में एक मामला खूब उछला था। गंगोलीहाट (जो कि मेरा घर है) की एसडीएम दीप्ती सिंह ने अपने पति के खिलाफ़ बदसलूकी और मार-पीट का मामला दर्ज कराया है। पिछले महीने जब मैं घर गई तो वहां हर ओर इसी बात की चर्चा थी। गंगोलीहाट एक छोटा सा कस्बा है, यहां बड़ी-बड़ी घटनाएं नहीं होतीं, इसलिए लोग छोटी-छोटी चीज़ों को ही बड़ा बना लेते हैं। फिर ये तो वहां की एसडीएम की बात थी। लेकिन मुझे हैरानी इस बात पर हुई की किसी की भी सहानुभूति दीप्ती के साथ नहीं थी। लोगों का कहना था कि ग़लती दीप्ती सिंह की है। जो कुछ लोगों की बातों से पता चला उसका सार ये है कि दीप्ती का पति खुद एक आईपीएस ऑफिसर है। परिवार की मर्ज़ी के खिलाफ़ दोनों ने लव मैरिज की और जैसा कि नौकरीपेशा लोगों के साथ अक्सर हो जाता है, दोनों की पोस्टिंग अलग-अलग जगह हो गई। अब पति महोदय चाहते थे कि दीप्ती अपनी जॉब छोड़कर उनके साथ रहे। और जब दीप्ती ने उसकी बात नहीं मानी तो उसकी पिटाई कर दी गई। और ज़्यादा क्या कहूं बस इतना ही पूछना चाहती हूं क्या पति को खुश करने के लिए दीप्ती को अपनी ज़िंदगी भर की कमाई, अपनी ज़िंदगी भर की मेहनत, अपना नाम, अपनी आइडेंटिटी को कुर्बान कर देना चाहिए था। मैं खुश हूं कि दीप्ती सिंह ने ऐसा नहीं किया। हालांकि उसने ऐसा किया होता तो शायद उसकी इतनी आलोचना नहीं होती। लेकिन आगे बढ़ना है तो ये सब तो सहना ही होगा।
जहां तक बात मीडिया की है। मैं मानती हूं, मीडिया करीब-करीब हर मामले में बहुत ख़राब भूमिका निभा रहा है। मीडिया से जुड़ी होने की वजह से मैं खुद को भी इसके लिए ज़िम्मेदार मानती हूं। लेकिन मीडिया अब एक कारोबार बन गया है। वैसे देखा जाए तो ये खुशकिस्मती ही है कि मीडिया बिज़नेस है। और कारोबारी की नज़र सिर्फ प्रॉफिट पर होती है। जिस दिन दूसरों की ज़िंदगी में ताक-झाक करने से, सनसनी फैलाने से, तिल का ताड़ बनाने से और चटपटी, मसालेदार ख़बरों से प्रॉफिट मिलना बंद हो जाएगा, मीडिया ख़ुद बख़ुद सुधर जाएगा। हालांकि दिल से मैं यही मानती हूं कि मेरा तर्क खोखला है। मीडिया जिस स्तर पर आ गया है उसे उठाना बहुत मुश्किल है। लेकिन अपने-अपने हिस्से की छोटी-छोटी कोशिश तो हम कर ही सकते है।

Saturday, February 7, 2009

एक फिज़ा के बहाने


सोचा था इस मुद्दे पर कुछ नहीं लिखूंगी...क्योंकि अगर कुछ लिखा तो लोगों को बुरा लगेगा...लेकिन फिर सोचा मैं दुनिया की परवाह क्यों करूं? वैसे तो ये एक बहस भर थी...और बहस का विषय औरत हो तो क्या कहने। किसने क्या कहा ये नहीं लिखूंगी क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बस इस बहस का नतीजा क्या निकला वो भर बता देती हूं। नतीजा निकला कि १- लड़कियां घरों को तोड़ती हैं. २-आज की पढ़ी लिखी लड़कियां पैसे वाले लोगों और खास कर राजनीति से जुड़े लोगों को फंसाती हैं फिर उनसे पैसे ऐंठती हैं. ३- कामकाजी लड़कियों को ना तो ढंग से काम आता है और ना ही घर संभालना. ४- कामकाजी लड़कियां सिर्फ अपनी मुस्कान और अदाओं का खाती हैं. ५- लड़कियों का क्या है जब तक बिना कुछ किए पैसा मिल रहा है तब तक नौकरी करो नहीं तो शादी कर लो. ६-लड़कियां अपने काम को सीरियसली नहीं लेती...और अगर डांट पड़ जाए तो दो आंसू टपकाए और बात खत्म। वैसे लिस्ट और भी लंबी हो सकती है लेकिन घुमाफिरा कर थीं यही बातें। ज़ाहिर है बहस में हिस्सा लेने वाले सभी पुरुष थे। बीच-बीच में मुड़कर मेरी ओर भी देख लिया जाता था...शायद इस उम्मीद में कि मैं कुछ बोलूं। लेकिन मैं कुछ नहीं बोली...और कुछ बोलने का फायदा भी क्या था?
बात शुरु तो अनुराधा बाली, माफ कीजिए...फिज़ा मोहम्मद से हुई थी...लेकिन खत्म...खैर छोड़िये।
फिज़ा तो वैसे भी आजकल हॉट टॉपिक है...फिज़ा के बहाने लड़कियों को नैतिकता, संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले राजनीति में भी हैं और मीडिया में भी। कोई लड़की धर्म बदलकर किसी शादी-शुदा आदमी के साथ शादी कर ले...लड़का भी कौन? एक पूर्व मंत्री...यहीं तक होता तो चलो मान भी लेते, दोनों खुले आम अपने प्यार का इज़हार करते घूमते हैं...मीडिया को इंटरव्यू देते फिरते हैं। अब ये बात लोगों को कैसे हज़म होगी। पहली बार जब चांद मोहम्मद और फिज़ा ने मिलकर प्रेस कांफ्रेंस की थी तो सभी न्यूज़ चैनल वालों की बाछें खिल गई कि चलो आज का मसाला मिल गया। मेरे एक सहयोगी ने तब भी कहा था यार ये तो बड़ी चालू चीज़ है। और अब जब कि फिज़ा चांद मोहम्मद की पोल पट्टी खोलने पर तुली हुई है तो मेरे वही सहयोगी बड़े गर्व से कहते हैं देखो मैने पहले ही कहा था ना बड़ी चालू चीज़ है....। हां चालू है फिज़ा क्योंकि उसने एक शादी शुदा आदमी के लिए अपना सबकुछ छोड़ दिया। हां वो चालू है क्योंकि उसने समाज से डरे बिना इस सच को स्वीकार किया। वो चालू है क्योंकि अपने धोखेबाज़ पति के पाप पर छुपकर आंसू बहाने के बजाए उसने दुनिया के सामने अपना रोना रोया। वो चालू है कि क्योंकि एक कोने में पड़े रहकर खुद को कोसने के बजाए उसने चांद मोहम्मद से ज़िम्मेदारी लेने को कहा। मैं फिज़ा की समर्थक नहीं हूं। मुझे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि चांद मोहम्मद उसके पास वापस लौटता है या नहीं। मेरी दिलचस्पी इसमें भी नहीं है कि कौन चांद मोहम्मद की असली पत्नी है। लेकिन मैं एक औरत हूं और मुझे इस बात से फर्क पड़ता है जब फिज़ा के बहाने लोग औरतों पर फिकरे कसते हैं...मुझे फर्क पड़ता है जब नैतिकता के ठेकेदार औरतों को हद में रहने की सलाह देने लगते हैं। मुझे फर्क पड़ता है जब ऑफिस में घटिया मज़ाक के दौर चलते हैं और मेरे बगल में बैठे दो पुरुष सहयोगी एक दूसरे के कानों में कुछ फुसफुसाते हैं और एक घिनौनी सी हंसी हंसते हैं। जी हां मुझे फर्क पड़ता है जब खुद को पढ़े लिखे कहने वाला एक पत्रकार मैंगलोर में हुई लड़कियों की पिटाई को सही ठहराता है। तर्क ये कि जब कोई अपनी सीमा पार करता है तो किसी ना किसी को तो आगे आना ही होगा। तो अब आप बताएंगे हमें कि हमारी सीमा क्या है? आप समझाएंगे हमें कि हमारा चरित्र कैसा होना चाहिए? क्यों भला? आप कौन होते हैं हमारी सीमा तय करने वाले? हमारे चरित्र का ग्राफ बनाने वाले? हमने तो ये हक़ किसी को नहीं दिया। ये सिर्फ और सिर्फ हमारा अधिकार है। और अच्छा यही होगा कि कोई, मतलब कोई भी इस अधिकार में हस्तक्षेप करने की कोशिश ना करे। क्योंकि लड़कियों के ज़रा हाथ-पैर खोलते ही तुम्हारा दम फूलने लगा है। तो सोचो अगर पूरी परवाज़ ले ली तो क्या होगा?

Sunday, January 25, 2009

क्या ये आतंकवाद नहीं?


कुछ ही महीने पहले अपने एक दोस्त से मिली... बहुत दिनों बाद मुलाक़ात हुई थी...और सच कहूं तो उससे मिलकर बहुत अच्छा भी लगा। सिर्फ २ साल में ही उसने काफी तरक्की कर ली थी। मुझसे चार गुना सैलरी थी...और खर्च भी वैसा ही। .उसका नाम नहीं लिखूंगी...इसलिए नहीं क्योंकि मैं उसकी पहचान गुप्त रखना चाहती हूं...बस इसलिए कि क्योंकि आजकल मुझे अपने आसपास हर शख्स में उसका अक्श नज़र आने लगा है। तो जैसा कि आजकल होता है। हफ्ते में पांच दिन वो जमकर काम करता था और दो दिन जमकर मस्ती। लेकिन अंदर कहीं कुछ चुभ भी रहा था। मुझे लगा कि ज़िंदगी में मैं कहीं पीछे छूट गई हूं। एक बार तो ये भी सोचा कि अगर आईटी सेक्टर ज़्वाइन किया होता तो तरक्की के ज़्यादा चांसेज़ थे। लेकिन आज हालात बिल्कुल बदले हुए हैं। उसमें वो ज़िदादिली नज़र ही नहीं आती...बिल्कुल डरा हुआ, सहमा हुआ सा लगता है। जिन मदों में खर्च करने से पहले वो सोचता भी नहीं था आज वही उसे भारी लग रहे हैं। हर हफ़्ते जमने वाली महफिलें सूनी हो गई हैं। मोबाइल का बिल आधा भी नहीं रह गया है और यहां तक कि सिगरेट की लत भी लगता है छूट जाएगी। हर थोड़ी देर के बाद उसके मुंह से निकल ही जाता है कि यार इंडस्ट्री की हालत बहुत ख़राब है। यार आजकल ऑफिस में बहुत टेंशन चल रही है। न जाने कब नौकरी से हाथ धोना पड़ जाए। अपने हमेशा हंसते रहने वाले दोस्त के मुंह से ऐसी बातें सुनकर इस दुनिया पर, इस सिस्टम पर बेहद गुस्सा आता है? क्या दुनिया सिर्फ एक बाज़ार भर है? क्या इंसान सिर्फ एक मशीन भऱ है? जब तक तुम्हारा काम है तब तक इस मशीन को घिसते रहो...और जब काम निकल जाए तो उसे कबाड़ की तरह फेंक दो। आर्थिक मंदी, आर्थिक मंदी सुन-सुन कर कान पक गए हैं। ये आर्थिक मंदी कोई आसमान से तो टपकी नहीं है। दुनिया में पैसा पहले भी उतना ही था जितना कि अब है। कंपनियों के ग़लत फ़ैसले, ग़लत प्रबंधन का खामियाज़ा बेचारे वो लोग क्यों उठाएं जो अपनी दिन रात की मेहनत उस कंपनी को आगे बढ़ाने में लगा रहे हैं। तर्क कहता है कंपनी का बचना ज़्यादा ज़रूरी है तो क्या कंपनी को बचाने के लिए कर्मचारी की बलि लेना ज़रूरी है। अभी तो एक सत्यम का सच सामने आया है। कौन जाने अभी ऐसे कितने सच अंधेरे में दफ़न हैं? तो क्या हर बार जब ऐसा कोई सच सामने आएगा तो मेरा कोई दोस्त अपनी मुस्कान खो देगा? ऐसे तो एक दिन हम सब मुस्कुराना भूल जाएंगे। तब ये कंपनियां अपनी तरक्की का जश्न क्या लाशों के साथ मनाएंगी?

क्यों गर्व करूं?


क्या सर्फ इसलिए क्योंकि मैं इस देश में पैदा हुई हूं? जबकि मैं ये जानती हूं कि यहां पैदा होना या ना होना मेरी मर्ज़ी से तय नहीं हुआ
क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि इस देश की आज़ाद हवा में मैं सांस ले रही हूं? जबकि मैं जानती हूं कि मेरी सोच तक पर पाबंदी लगी है।

क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि यहीं मुझे पेट भरने को अन्न मिल रहा है? जबकि मैं जानती हूं करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं।

क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि इस देश में औरत को देवी की तरह पूजा जाता है? जबकि मैं जानती हूं पत्थर की देवी की तरह औरत को सब कुछ चुपचाप सहन करना पड़ता है।

क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी संस्कृति सबसे महान है? जबकि मैं जानती हूं कि हमें विरासत में नफ़रत और ज़हर के अलावा कुछ नहीं मिला।

क्यो गर्व करूं मैं इस देश पर?
क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि तुम ऐसा कहते हो?

या इसलिए क्योंकि यहां रहने के लिए यही कहना होगा।