Monday, November 24, 2008

मीडिया बनाम जनस्वास्थ्य


मीडिया बनाम जनस्वास्थ्य
उमेश पंत

स्वास्थ्य एक ऐसा मुद्दा है जो भारतीय मीडिया में अछूत सी हैसियत रखता है इसीलिये एनडीटीवी इन्डिया पर स्वास्थ्य पर फीचर देखकर एकबारगी हैरानी हुई कि यह कैसे हो गया? विशेषकर हिन्दी मीडिया में यह विषय बेहद उपेक्षित है। देश में एक ओर पंचसितारा अस्पतालों के चलन ने जोर पकड़ा है। हेल्थ टूरिजम के बहाने विदेशी पर्यटक बेहतर स्वास्थ्य की उम्मीद में यहां आते हैं और हमारा देश उनकी उम्मीदों पर खरा भी उतरता है। उन्हें उनके मन माफिक माहौल और सुविधाएं मुहैय्या कराई जाती हैं और दूसरी ओर जो अपने देश के लोगों के स्वास्थ्य का आलम है वो एनडीटीवी की इस रिपोर्ट में प्ूारे दर्द और नंगी सच्चाई के रुप में बंया हो जाता है। देश की राजधनी के प््रामुख सरकारी अस्पताल लोकनायक जय प्रकाश अस्पताल में जनस्वास्थ्य की धज्जियां उड़ते देख जो दर्द होता है उस दर्द का इलाज इस अस्पताल में तो क्या प्ूारी व्यवस्था में फिलवक्त नहीं दिखाई देता। रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में जहां बच्चों की मृत्यु दर 3 दशमलव 3 प््रतिशत वहीं इस अस्पताल में आने वाले बच्चों की मृत्युदर 33 प््रातिशत के आसपास है। गन्दगी से सने अस्पताल के जो दृश्य फीचर में दिखाये गये उन्हें देख नर्क की कल्पना को साक्षात किया जा सकता है। लेकिन इस नर्क की यह हकीकत मीडिया में कभी जगह नहीं बना पाती क्योंकि उपेक्षा का दंश झेलता न वह निम्नवर्गीय आदमी स्क्रीन पर अच्छा लगता है न ही वह अस्पताल जिसे बनाया तो उसे स्वस्थ्य रखने के लिए है, लेकिन जहां रहकर सेहत का सुध्र पाना कतई असम्भव सा है।
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 80 प््रतिशत प््रााथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में एक भी चिकित्सक नहीं है। ऐसे में वहां झोलाछाप डाक्टर अब भी व्यवस्था का विकल्प बने हुए हैं। दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में ओझाओं और भोपाओं के टोटकों को स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए अपनाने के सिवाय लोगों के पास कोई चारा है। आप दूर बैठे चाहे इसे अन्ध्विश्वास कहें लेकिन यही उनकी मजबूरी है।
देश में 8 प्रतिशत स्वास्थ्य केन्द्रों में एक भी डाक्टर नहीं है। जबकि 39 प्रतिशत अस्पताल बिना लैब टैक्नीशियन और 17 प्रतिशत अस्पताल बिना फार्मासिस्ट के चल रहे हैं। यह तथ्य हाल ही में जारी की गई राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट से उजागर हुए हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में 6 लाख पचास हजार डाक्टर काम कर रहे हैं। भारत में औसतन 1700 लोगों पर एक डाक्टर उपलब्ध है जबकि अमेरिका में 400 लोगों पर 1 डाक्टर उपलब्ध है।
सरकार द्वारा प्रस्तावित पदों में से 59 दश्मलव 4 प्रतिशत सर्जन, 45 प्रतियशत गाइनोकोलोजिस्ट और 61 दशमलव 1 प्रतिशत फिजिसिायनों के पद रिक्त पड़े हैं। शहरी गरीबों में 3 साल से कम आयु के लगभग 57 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। देश में तकरीबन 6 लाख से ज्यादा लोग हर साल टी बी की चपेट में आकर मर जाते हैं। निमोनिया हर साल 4 लाख लोगों को लील जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार 2005 में 1 लाख 7 हजार माताओं की मृत्यु हो गई। नेश्नल फैमिली हैल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की हर दूसरी महिला एनीमिया की शिकार है।
स्वास्थ्य के इन बिगड़े हालातों की वजह विभिन्न ज्ञस्वास्थ्य योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार है। विश्व बैंक ने खुलासा किया है कि 1993 से 2003 तक भारत में लागू की गई विभिन्न स्वास्थ्य परियोजनाओं में 2500 करोड़ रूपये का घोटाला किया गया। भारत सरकार ने इस आरोप को स्वीकार करते हुए कहा है कि परियोजनाओं के डिजाइन, निरीक्षण और कार्यान्वयन में खामियां रही हैं।
कहने को ये महज आंकड़े हैं, आंकड़े जो पूरी तरह चर्मराई हुई देश की स्वास्थ्य सुविधओं को संज्ञान में लाने के लिए समय समय पर रिपोर्ट की शक्ल में आते हैं। ये आंकड़े कई गैर सरकारी संगठनों को अस्तित्व में बनाये रखते हैं, कई शोध्कर्ताओं को पालते हैं। लेकिन इन आंकड़ों की शक्ल कभी इतनी भयावह नहीं लगती। इन आंकड़ों पर कभी बहस नहीं होती। क्योंकि आज का दौर मीडिया एडवोकेसी का है। मीडिया जिस मुद्दे को उछाल देगा उस पर क्रिया प्रतिक्रिया और तमाम हलचलें होंगी। लेकिन न जाने क्यों यह विडम्बनाबोध हमारे मीडिया को अब तक नहीं हो पाया है कि लचर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की सूली में चढ़ाये जा रहे आम आदमी के स्वास्थ्य के लिए मीडिया में जगह नहीं है। यह तय है कि जब तक मीडिया स्वास्थ्य सम्बन्ध्ी अनियमितताओं को बढ़चढ़कर उजागर नहीं करेगा, उन्हें चुनावी मुददा बनने को मजबूर नही करेगा, तब तक ना ही नेता न सरकार स्वास्थ्य सुविधओं में सुधर के लिये सक्रिय होंगे।
स्वास्थ्य के मसले पर मीडिया की नीतियों में भी खामियां हैं। मीडिया में तथ्यों के मैनिपुलेशन की प््रावृत्ति बढ़ी है। उसपर बड़ी फार्मास्यूटिकल कम्पनियों का दबाव साफ नजर आता है। एक सेमीनार में डा ए के अरूण ने बीमारियों के उन्मूलन कार्यक्रमों के नियंत्राण कार्यक्रमों में बदल जाने को चिन्ताजनक बताया। उन्होंने कहा कि मीडिया को जनता तक सही तथ्य पहुंचाने चाहिए। उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि मैंनिंगो कोक्सीमिया रोग दिल्ली में आया भी नहीं था और मीडिया में फैलाए गये भ्रम के कारण इस रोग के 50 करोड़ वैक्सीन बिक गये। मीडिया के ऐसे प्रचारों से जनता के पैसे भी व्यय होते हैं और उनमें अनावश्यक भय भी पैदा होता है।
आज स्वास्थ्य मसलों को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्यों सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बद से बदतर हो रही है? क्यों ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे अति प्रचारित सरकारी प्रयासों के सकारात्मक परिणाम धरातल पर नहीं दिखाई देते? इन परियोजनाओं के नाम पर पानी के भाव बहाया गया पैसा आंखिर कहां पचा लिया गया? और लाख टके का सवाल यह कि मीडिया में अस्पतालों के बड़े और लम्बे विज्ञापनों तो हैं लेकिन जनस्वास्थ्य के मौजूदा परिदृश्य का असल चित्राण क्यों शिरे से गायब है। कम से कम मीडिया को अपनी जवाबदेही तय करनी चाहिये। एनडीटीवी से प्रेरित होकर यदि यह मुहिम अन्य चैनलों में भी दिखाई दे पाती है तो शायद परिदृश्य में कोई बदलाव हो पाये।

Monday, November 3, 2008

सलाम kumble


कोटला टेस्ट का आखिरी दिन....दोपहर के बाद का समय...मैच में कोई रोमांच बचा नहीं था...सब जानते थे कि टेस्ट ड्रा हो रहा है...इस टेस्ट में ऐसा कोई रिकॉर्ड भी नहीं बना कि लोग इसे याद रख सकें। फिर भी ये टेस्ट खास बन गया। अनिल कुंबले ने इसी मैदान को चुना क्रिकेट से अपनी विदाई के लिए। अब साबित करने के लिए कुछ बचा भी तो नहीं था। कोटला की पिच सही मायने में कुंबले की है। सात फरवरी १९९९ का वो दिन क्या कोई क्रिकेट प्रेमी भूल सकता है? यही तो वो मैदान था जहां कुंबले ने पाकिस्तान के सभी १० खिलाड़ियों को अपनी फिरकी के जाल में फंसाया था। लोगों ने कहा कि ये एक चमत्कार है। लेकिन वो चमत्कार नहीं था। वो इस सीधे, सज्जन और सौम्य खिलाड़ी की बरसों की तपस्या का नतीजा था। उसकी दिन रात की मेहनत का नतीजा था। यही वो मैदान था जहां पहली बार कुंबले सचिन, द्रविड़ औऱ सौरव गांगुली को पीछे छोड़ कर एक स्टार बने। कुंबले के इस फैसले के पीछे वजह जो भी हो लेकिन सच यही है कि उन्हें कभी भी वो सम्मान नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। एक आद मौकों को छोड़ दें तो कुंबले कभी स्टार नहीं बन पाए। दरअसल स्टार बनना वो सीख ही नहीं पाए। बेवजह के बयान देना, मैदान के बीच में डांस करना, नए-नए हेयर स्टाइल बनाना, विपक्षी खिलाड़ियों से उलझना, शर्ट उतारकर हवा में लहराना...अगर कुंबले ये सब कर पाते तो आज वो भी स्टार होते। लेकिन कुंबले ने तो सिर्फ खेलना सीखा था। क्रिकेट उनके लिए शौक या पैसा कमाने का ज़रिया नहीं बल्कि उनके जीने का ज़रिया है। वरना क्या पड़ी थी उन्हें वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ टूटे हुए जबड़े के साथ मैदान में उतरने की। अंगुली में लगे ११ टांके क्यों नहीं रोक पाए कुंबले के कदम। सिर्फ इसलिए क्योंकि वो योद्धा है। सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने हारना नहीं सीखा है। वो जानता है कैमरे के फ्लैश कभी उसके लिए नहीं चमकेंगे, रिपोर्टर कभी उनकी बाइट के लिए नहीं भागगें। लेकिन उसे ये भी पता है कि वो नींव है...इमारत कितनी भी बुलंद क्यों ना हों, कितनी भी खूबसूरत क्यों ना हो नींव अगर ज़रा सा भी हिल जाए तो उसे ज़मीदोज़ होने में देर नहीं लगती। कभी अनिल कुंबले ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि क्रिकेट बल्लेबाज़ों का खेल है। एक बल्लेबाज़ को एक छक्के से उतनी तालियां मिल जाती हैं जितनी एक गेंदबाज़ को विकेट लेने पर भी नहीं मिलती। मीडिया में छाई एक दिन की सुर्खियां भारतीय क्रिकेट के लिए कुंबले के योगदान को नहीं बता सकती, कुंबले के खाते में दर्ज ६१९ विकेट उसके जीवट को नहीं समझा सकते। अब अनिल कुंबले मैदान पर क्रिकेट खेलते नज़र नहीं आएंगे। युवा ब्रिगड का सपना देखने वाले कुंबले की विदाई से खुश हैं लेकिन कुंबले की खाली जगह कौन भरेगा ये जवाब किसी के पास नहीं है, क्योंकि कुंबले के संन्यास की वकालत करने वाले भी जानते हैं कि कुंबले की जगह कोई भर नहीं सकता। कंचन