Tuesday, October 9, 2007

कमाल विचारों की उड़ान का


विग्यान
एक बंदर कूदता है इस डाल से उस डाल।
देखते हैं उसे दो लोग।
पहला खिलखिला उठता है उसे देख यूं ही।
दूसरा उसे देखता है गौर से
और कहता है गति हुई।
बस इसी सोच का अदना सा अन्तर विग्यान है।


ब्लैक होल- अंतरिक्ष के गर्भ में छिपा रहस्य

बह्मांड के अनंत विस्तार में ढेरों रहस्य और अदभुत करिश्मे छिपे हुए हैं। ब्लैक होल भी अंतरिक्ष का ऐसा ही एक रहस्य है। इस अदभुत आकाशीय रचना को समझाने के लिए साइंटिस्टों ने कई सिद्यांत दिए, कई तर्क पेश किए। लेकिन क्या ब्लैक होल को समझना इतना आसान है? सैद्यांतिक तौर पर देखें तो हां लेकिन जब बात प्रायोगिक तौर पर इसे सिद्ध करने की आती है। तो इसे सिद्ध कर पाना संभव ही नहीं है। क्योंकि दुनिया की कोई भी प्रयोगशाला ब्लैक होल के अस्तित्व को साबित नहीं कर सकती। लेकिन हकीकत में ब्लैकहोल आखिर हैं क्या?
आम भाषा में कहें तो ब्लैक होल एक ऐसा तारा है जिसका गुरुत्वीय बल असीमित है। इतना ज्यादा कि प्रकाश तक इसकी गुरुत्वीय सीमा से बाहर नहीं निकल सकता। और ब्लैक होल का बनना उतना ही प्राकृतिक है जितना सूर्य का चमकना या ग्रहों का सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाना। ब्लैक होल वास्तव में एक तारा है। हमारे सूर्य से लाखों गुना बड़े आकार का तारा। तारों में हर वक्त नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया होती रहती है। और हर बार इस प्रकिया के साथ तारे की ऊर्जा भी घटती जाती है। करोड़ों सालों तक इस प्रकिया से गुजरने के बाद एक समय ऐसा आता है जब तारे के पास इतनी भी ऊर्जा नहीं होती कि वो अपने आकार तक को बनाए रख सके। और ये तारे तेज़ी से सिकुड़ने लगते हैं। ब्लैक होल बन रहे तारे का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, इसका घनत्व बढ़ता है और उसी अनुपात में तारे की गुरुत्वीय बल (ग्रेविटेशनल फोर्स) भी बढ़ता जाता है। ब्लैक होल मे बदल चुके तारे का गुरुत्वीय बल इतना ज़्यादा होता है कि कोई भी चीज़ इसकी गुरुत्वीय सीमा को पार करके बाहर नहीं आ सकती। कोई ऊर्जा भी नहीं। ब्लैक होल अपनी सीमा में आने वाली हर चीज़ को निगल लेता है।
लेकिन ये होता कैसे है? इस बात का जवाब साइंस के बेहद आसान सिद्यांतों में छिपा हुआ है। जब कभी हम आसमान की ओर कोई चीज़ उछालते हैं तो वो थोड़ी ऊपर तक जाने के बाद वापस धरती की ओर आने लगती है। क्योंकि पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल उसे अपनी ओर खींच लेता है। लेकिन अगर किसी चीज़ को बहुत तेज़ गति के साथ आसमान की ओर उछाला जाए तो वो गुरुत्वाकर्षण की सीमा से निकलकर अंतरिक्ष की ओर बढ़ती रहेगी। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण सीमा से बाहर निकलने के लिए ज़रूरी इस वेग को पलायन वेग कहते हैं। हर ग्रह, उपग्रह और आकाशीय पिंड का पलायन वेग अलग-अलग होता है। ये पलायन वेग उस पिंड के आकार, घनत्व या यूं कहें कि गुरुत्वीय बल पर निर्भर करता है। जिस पिंड का गुरुत्वीय बल जितना ज़्यादा होगा, उसका पलायन वेग भी उतना ही बढ़ जाएगा। अगर पृथ्वी की बात करें तो इसका पलायन वेग ११.२ किलोमीटर प्रति सैकिंड है। यानी जो पृथ्वी से जो भी रॉकेट या अंतरिक्ष यान अंतरिक्ष की ओर भेजे जाते हैं उनका वेग ११.२ किलोमीटर प्रति सैकिंड से ज़्यादा ही होता है। क्योंकि इससे कम वेग के साथ ये पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर नहीं निकल सकते। इसी तरह चंद्रमा का पलायन वेग सिर्फ २.४ किलोमीटर प्रति सैकिंड है। क्योंकि चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल पृथ्वी से करीब ६ गुना कम है।
अब अगर हम ऐसे किसी पिंड की कल्पना करें जिसका पलायन वेग प्रकाश की गति ( प्रकाश से तेज़ गति किसी चीज़ की नहीं होती) ज़्यादा है तो क्या होगा? ज़ाहिर है प्रकाश भी इस पिंड के गुरुत्वीय आकर्षण से बाहर नहीं निकल पाएगा। बस यही पिंड ब्लैक होल है।
ब्लैक होल जैसी किसी चीज़ का विचार एस्ट्रोलॉज़र्स के दिमाग में १७वीं शताब्दी में ही आ गया था। लेकिन १९३० में तीन साइंटिस्टों ने इसके बारे में गंभीरता से खोज करनी शुरू की। ओपनमेर, वोल्कॉफ और सिंडर ने अपनी रिसर्च के बाद बताया कि जब किसी बड़े तारे की ऊर्जा खत्म होने लगती है तो ये अपने गुरुत्वीय बल से खुद को भी नहीं बचा पाता। औऱ नष्ट होकर ब्लैक होल में बदल जाता है। हांलाकि इसे ब्लैक होल नाम इन तीनों ने नहीं दिया। इस तारे को ब्लैक होल का नाम जॉन व्हीलर ने दिया और ये नाम इस तारे के लिए बिल्कुल उपयुक्त भी है। क्योंकि ब्लैक होल को ना तो कोई देख पाया है और ना ही कभी कोई देख पाएगा। क्योंकि रोशनी की किरण तक को इसका तीव्र गुरुत्वीय बल अपने अंदर खींच लेता है। लेकिन ब्लैक होल बन जाना भी किसी तारे का अंत नहीं है। जाने माने साइंटिस्ट स्टीफन हॉकिंग ने १९७० में एक सिद्यांत के ज़रिये ब्लैकहोल को समझाने की कोशिश की। हॉकिंग का कहना है कि क्वांटम-मैकेनिक्स के मुताबिक ब्लैक होल लगातार विकिरण(रेडिएशन) छोड़ते रहते हैं। जिसकी वजह से इनका द्रव्यमान घटता रहता है। और ये सिकुड़ते जाते हैं। और आखिर कार ये तारा पूरी तरह से नष्ट हो जाता है।

क्या होगा अगर कोई ब्लैक होल में गिर जाए।

ब्लैक होल में गिरने का मतलब है, हमेशा-हमेशा के लिए अंतहीन अंधेरे में खो जाना। एक बार अगर कोई चीज़ ब्लैक होल में गिर जाए तो दुनियां की कोई भी ताकत उसे वापस नहीं खींच सकती। जैसे ही कोई चीज़ ब्लैक होल मे गिरती है तो ब्लैक होल का केंद्र उसे तेज़ी से अपनी ओर खींचने लगता है। इतनी तेज़ी से कि ब्लैक होल की परिधि से इसके केंद्र तक की सैकड़ों- हज़ारों किलोमीटर की दूरी को तय करने में इस चीज़ को महज कुछ सैकिंड ही लगते हैं। इसे समझने के लिए बस यही उदाहरण काफी होगा कि अगर सूर्य से १० लाख गुना ज़्यादा द्रव्यमान वाले वाले किसी ब्लैक होल में कोई चीज़ गिरनी शुरू होगी तो ब्लैक होल का केंद्र इसे तेज़ी से अपनी ओर खींचेगा। और अगर इस वस्तु की शुरुआती स्थिति ब्लैक होल की तृज्या से १० गुना दूरी पर हो तो इसे ब्लैक होल के हॉरिजन तक पहुंचने में लगेंगे आठ मिनट और इसके बाद इसके टुकड़े-टुकडे होकर बिखरने में लगेंगे सिर्फ ७ सैकिंड। और अगर कोई इंसान ६० लाख किलोमीटर दूर किसी ब्लैक होल में गिरने लगे तो सिर्फ आठ मिनट और सात सैंकिंड में उसका शरीर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। और ब्लैक होल का द्रव्यमान जितना कम होगा , मौत का समय भी उतना ही कम होता जाएगा।

क्या सूर्य भी ब्लैक होल में बदल जाएगा?

ये सच है कि कई सितारों की ज़िंदगी ब्लैक होल के रूप में ख़त्म होती है। लेकिन सूर्य के ब्लैक होल में बदलने की संभावना नहीं के बराबर है। क्योंकि ब्लैक होल में बदलने के लिए तारे का द्रव्यमान बहुत ज़्यादा होना चाहिए। हमारे सूर्य से लाखों गुना ज़्यादा। सूर्य का द्रव्यमान ब्लैकहोल में बदलने के लिए काफी नहीं है। एस्ट्रोनॉमी और एस्ट्रोफिज़िक्स के जानकार मानते हैं कि अगले ५ करोड़ सालों तक सूर्य को कुछ नहीं होने वाला। लेकिन इसके बाद सूर्य की ऊर्जा कम होने लगेगी और ये बुध और शुक्र को निगल जाएगा। इससे सूर्य का आकार बढ़ जाएगा। ऐसा होने पर धरती का तापमान कई गुना बढ़ जाएगा। महासागर उबलने लगेंगे और जीना मुश्किल हो जाएगा। और यही होगी पृथ्वी पर जीवन के अंत की शुरूआत। पृथ्वी पर उथल-पुथल मचाने के बाद सूर्य एक सफेद बौने तारे(व्हाइट ड्वॉर्फ़ स्टार) में बदल जाएगा। और अगर किसी वजह से सूर्य ब्लैक होल में बदल भी गया तो ये इतना मामूली ब्लैक होल होगा कि ब्रह्मांड में इसके होने या ना होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। इस ब्लैक होल की सीमा सिर्फ़ तीन किलोमीटर होगी। यानी पृथ्वी कम से कम इस ब्लैक होल में गिर कर तो खत्म नहीं होगी। लेकिन इससे कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि सूर्य के बिना तो पृथ्वी वैसे ही ख़त्म हो चुकी होगा। लेकिन ये सब होगा करीब आठ करोड़ साल के बाद...क्या पता तब तक इंसान पृथ्वी के विकल्प के रूप में कोई और ग्रह ही खोज ले।

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