Friday, December 12, 2008

इस कीचड़ में कब तक?


अभी जिस वक्त मैं ये लिखने बैठी हूं रात के कोई साढ़े तीन बज रहे हैं। कायदे से मुझे अभी सो जाना चाहिए। ग्यारह घंटे तक थका देने वाली शिफ्ट के बाद कोई भी यही करेगा। लेकिन मैं जानती हूं मुझे नींद नहीं आएगी। नहीं...मैं किसी प्यार-वार के चक्कर में नहीं पड़ी हूं, मेरे ऊपर घर-परिवार की ज़िम्मेदारी भी नहीं है, मैं किसी कर्ज़ के बोझ से भी नहीं दबी हूं। हां बोझ है, उस जुनून का जो मुझे पत्रकारिता में खींच के लाया, उस वादे का जो मैंने अपने आप से किया था। लेकिन परिस्थितियां हर रोज़ बद से बदतर होती जा रहीं हैं।
बचपन में डार्विन का सिद्धांत पढ़ा था, योग्यतम की उत्तरजीविता....सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट। दुनिया कुछ भी मानती रहे, मैंने हमेशा यही माना कि डार्विन का सिद्धांत जानवरों के लिए है...इंसानों के लिए नहीं। आखिर कैसे एक इंसान अपने सरवाइवल के लिए दूसरे की बलि ले सकता है? बॉयोलॉजी के सर के साथ इसको लेकर काफी बहस भी की, कुछ दलीलें उन्होंने दीं, कुछ मैंने। १२वीं की बोर्ड परीक्षा में मैंने सिर्फ इसलिए डॉर्विन के सिद्धांत की विशेषताएं नहीं लिखी क्योंकि मैं उसके सिद्धांत पर भरोसा नहीं करती थी। सर अभी भी इस बात को लेकर मुझे छेड़ते हैं लेकिन मैं कई महीनों तक इसी गर्व के साथ जीती रही कि मैंने अपनी मर्ज़ी के खिलाफ़ काम नहीं किया। तब मैं स्कूल की एक छात्रा थी, ज़िंदगी के असली सबक अब सीखने को मिल रहे हैं लेकिन अब अपनी बात कहने की वो आज़ादी नहीं है, अब अपनी मर्ज़ी से काम करने की इजाज़त नहीं है। अब मैं पत्रकार जो हूं। आज की पत्रकार। अब मुझे वही करना होगा जो मुझे कहा जाएगा, बिना ना नुकुर किए, बिना बहस किए। क्योंकि सामने मेरे सवालों का जवाब देने के लिए, मेरी आपत्तियों के निदान के लिए मेरे सर नहीं, मेरे बॉस होंगे। चार साल पहले जब हम पत्रकारिता पढ़ रहे थे उन दिनों टीवी के स्क्रीन पर जोश से भरे, आत्म विश्वास से लबरेज़ नज़र आने वाले चेहरे आज न जाने क्यों बहुत धुंधले से लगते हैं। इन साढ़े-तीन चार सालों में मुंह बंद करके अपने आस-पास के लोगों को समझने की कोशिश की लेकिन देखती क्या हूं, यहां या तो कोई कुंठित प्राणी नज़र आता है या आत्म मुग्ध जीव। परेशानी उन कुंठित लोगों से नहीं है जो बेचारे दिन रात अपनी कुर्सी बचाने के जुगाड़ में लगे रहते हैं। परेशानी उन आत्म मुग्ध लोगों से है जिन्हें हर कामयाबी का सेहरा अपने सिर, और हर नाकामी का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ने की बीमारी है। इनकी दुनिया इन्हीं से शुरू होती है और इन्हीं पर ख़त्म होती है। अब या तो आप इनके पीछे-पीछे दुम हिलाते हुए घूमिए या बेआबरू होकर कोने में बैठिए। इनके अलावा भी कुछ लोग हैं, इन सबके चेहरे एक से हैं, झुंझलाए हुए, गुस्से से भरे, मानो खुद से ही नाराज़ हों। सभी दौड़े चले जा रहे हैं, पता नहीं किस ओर....मंजिल तक पहुंचना इनका लक्ष्य नहीं है, ये तो बस दौड़ रहे हैं, इसलिए क्योंकि सामने वाला दौड़ रहा है। इस उम्मीद में कि कभी तो मौका मिलेगा लंगड़ी फंसाने का। आज भले ही सातवे आसमान पर आपका बसेरा हो लेकिन कब आपसे धरती का टुकड़ा भी छिन जाएगा कोई नहीं बता सकता। मज़े की बात तो ये है कि आपके कमज़ोर पड़ते ही सबसे पहले वो लोग आपका साथ छोड़ते हैं जिन्हें आपने अपना सबसे करीबी माना था। वैसे सच ये भी है कि कमल कीचड़ में ही खिलता है। बस इस उम्मीद में इस पत्रकारिता का दामन थामे हुए हूं कि आज नहीं तो कल कोई कमल खिलेगा ज़रूर। और शायद तब मैं एक बार फिर पूरे जोश के साथ कह सकूंगी कि डार्विन का सिद्धांत इंसानों के लिए नहीं है।

No comments: